बचपन की यादें: वो मस्ती भरे दिन

बचपन की यादें: वो मस्ती भरे दिन

वो बचपन के दिन भी क्या खूब थे —
ना दोस्ती का मतलब पता था, ना मतलब की दोस्ती थी।

मेरा बचपन मेरी ज़िंदगी का सबसे प्यारा हिस्सा था। जब भी मैं उन दिनों को याद करता हूँ, आँखों में नमी और चेहरे पर मुस्कान आ जाती है।
हमारे मोहल्ले में ढेर सारे बच्चे थे —
अलग-अलग उम्र के, मगर दिल से सब एक जैसे।
कभी क्रिकेट, कभी छुपन-छुपाई,
कभी कबड्डी, तो कभी चोर-सिपाही।
हर दिन नया खेल, हर दिन नई मस्ती।

खेलते-खेलते कभी अम्मा की आवाज़ सुनाई देती —
"हे बेर बिरचुन बेर..."
हम दौड़ते हुए पूछते, "अम्मा, बेर पत्ते में दोगी न?"
अगर अम्मा कहतीं, "हाँ बेटा,"
तो हम खुशी से लेकर आते।
पर अगर कहतीं, "नहीं बेटा, कागज़ में देंगे,"
तो हम नाक-भौं सिकोड़कर बोलते,
"फिर नहीं चाहिए!"
क्योंकि उस ताज़े हरे पत्ते की सौंधी खुशबू में बेर खाने का मज़ा ही कुछ और था, जो कागज़ में कहाँ।

थोड़ी देर बाद गली में गूंजती दूसरी आवाज़ —
"गुलाब लच्छी, खाने में अच्छी..."
और बच्चे मस्ती में चिल्लाते —
"गुलाब लच्छी, काँटे में मच्छी!"
...फिर खिलखिलाते हुए भाग जाते।

पानी टिक्की वाला ठेला, कुल्फी की टन-टन घंटी, और आइसक्रीम वाले की भोंपू —
मोहल्ले की खुशी के छोटे-छोटे ये पल हर दिन रंग भर देते थे।

शाम होते ही बच्चे इकट्ठा होकर भूतों की कहानियाँ सुनते थे।
कोई डरता, कोई हँसता, पर सब साथ में बैठकर एक-दूसरे की आँखों में डर ढूँढते थे।
वो अनुभव आज भी दिल को सुकून देता है।

घर लौटते ही गरमा-गरम खाना खाते हुए ‘शाकालाका बूम बूम’ देखना —
उसका भी एक अलग ही मज़ा था।

हमारे मोहल्ले में दिन भर मस्ती होती थी।
ना मोबाइल, ना इंटरनेट, बस एक पुरानी साइकिल, एक गेंद और जिगरी दोस्त।
शाम होते ही सब मैदान की ओर दौड़ लगाते।
चप्पल पहनकर खेलते, कभी पैर में काँटा चुभ जाए तो भी परवाह नहीं।
थोड़ा लड़खड़ाते, फिर हँसते हुए खेल में जुट जाते।

वो दिन जब चुपचाप सुधीर जी की दुकान पहुंच जाते थे, बिना बताए घर से निकलना और वीडियो गेम्स में खो जाना —
'कॉन्ट्रा', 'मारियो', 'रोड फाइटर' — नाम सुनते ही दिल मुस्कुरा उठता है!

एक बार दो दोस्त थे, जेब में सिर्फ एक रुपया। सुधीर जी दुकान पर नहीं थे, उनकी माँ मिलीं।
उन्होंने हमें अंदर बुलाया, पंखा चलाया और बिठा लिया।

हम थोड़े शर्मिंदा थे — क्योंकि जेब में सिर्फ एक रुपया था, पर शायद उन्हें लगा कि हम सुधीर जी के बड़े ग्राहक हैं। 😁

थोड़ी देर बाद जब सुधीर जी आए, तो जैसे चैन की साँस मिली।
हमने "अलादीन" शुरू किया — लेकिन एक खाई थी जो पार ही नहीं हो रही थी।
सुधीर जी ने समझाया कि कैसे पार होगी, पर तब तक टाइम खत्म हो गया।
उन्होंने मुस्कुराकर कहा —
"चलो, दस मिनट और खेल लो।"
हमने बिना देर किए "अलादीन" हटा दिया, और फिर "सुपर मारियो" लगा लिया।

ये गेम्स बस खेलने के लिए नहीं थे, उनकी धुनें गुनगुनाना और हर कैरेक्टर में मज़ाक ढूँढना भी मज़ेदार था।

जब खुद का वीडियो गेम आया, लगा जैसे दुनिया हमारी हो गई।
नई कैसेट्स चाहिए हों या रिमोट खराब हो जाए —
कभी लक्ष्मीचंद मार्केट, कभी गुरु नानक मार्केट जाना, ये भी एक छोटा-सा एडवेंचर था!

कॉमिक्स का भी अपना नशा था —
चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी — किराए पर लेकर पढ़ते, समय से पहले लौटा देते ताकि अगली बार फिर मिल जाए।
उन रंग-बिरंगे पन्नों और खुशबू की बात ही कुछ और थी।

याद है, बड़े भाई ने मम्मी से पैसे लेकर ढेर सारी कॉमिक्स खरीदने की योजना बनाई थी।
बड़े आत्मविश्वास से बोले —
“किराए की कॉमिक्स का खर्चा बच जाएगा, और बाकी लोग हमसे कॉमिक्स लेकर पढ़ेंगे...”
पर वे सारी कॉमिक्स बस हमारे मनोरंजन का हिस्सा बनकर रह गईं।

और यही “फ्री सेवा” वाला दौर सबसे सुनहरा था।
जो भी दोस्त आता, अपनी पसंदीदा कॉमिक्स उठाकर पढ़ने लगता। 🤗

कॉमिक्स में तरह-तरह की कहानियाँ होती थीं — कुछ रहस्य और सस्पेंस से भरी, कुछ ज़बरदस्त लड़ाई के साथ। मगर मुझे तो चाचा चौधरी, पिंकी, बिल्लू ही सबसे प्यारे लगते थे।

हम कहानियाँ नहीं पढ़ते थे, उनमें जीते थे।

जब छोटे थे ज़ी हॉरर शो देखा करते थे।
हर एपिसोड के बाद दिल डरता था,
पर मोहल्ले में उसी डर की चर्चा सबसे मज़ेदार लगती थी।

एक रात हमारे ग्रुप के एक लड़के ने बताया —
"एक बार मेरे पापा ने मुझे बताया था कि अपने घर से कुछ ही दूरी पर जो धर्मशाला है,
वहाँ एक भट्ठी रहती है जो चुड़ैल से भी ज़्यादा खतरनाक है!"

फिर अगले दिन दूसरा दोस्त बोला —
"मेरी मम्मी ने बताया कि उस धर्मशाला से थोड़ी ही दूर जो हवेली है,
वहाँ भी प्रेतात्माओं का बसेरा है!"

कुछ दिन बाद, ग्रुप का एक लड़का बेहद गंभीर आवाज़ में बोला —
"अगर ये दुआ पढ़ लो और तीन बार ताली बजाओ, तो कोई भी भूत, चुड़ैल या आत्मा वहीं से भाग जाएगी जहाँ तक ताली की आवाज़ पहुंचेगी!"

एक दिन गर्मियों की छुट्टियां चल रही थीं।
हमारी सभी बुआओं के बच्चे छुट्टियां बिताने आए हुए थे।
तो मेरे बड़े भाई ने योजना बनाई —
चलो उस धर्मशाला और हवेली को देखने चलते हैं।
हम सभी वहां जाकर वो दुआ पढ़ेंगे, तीन बार ताली बजाएंगे और फिर वहां से भाग जाएंगे।

हम तेज़ धूप में वहां पहुँचे।
धर्मशाला तो डरावनी नहीं थी, पर हवेली ज़रूर भूतिया लग रही थी —
जर्जर दीवारें, बाहर एक सूखा कुआँ, और चारों ओर फैली एक अजीब सी धुँधली छाया।

हम ऐसी जगह खड़े हो गए, जहाँ से हवेली और धर्मशाला दोनों एक साथ दिखती थीं।
फिर हमने एक साथ वह दुआ पढ़ी, तीन बार ताली बजाई,
और वहां से ऐसे भागे, जैसे सच में कोई प्रेतात्मा हमारे पीछे पड़ गई हो!

यही तो था वो बचपन, जहाँ बेवजह के काम भी पूरी ज़िम्मेदारी से किए जाते थे। 😄

ज़ी हॉरर शो में एक एपिसोड था — एक हीरे की अंगूठी वाला।
उसे देखकर हमारे चाचा के एक लड़के को हीरों से ऐसा लगाव हुआ,
कि वह नक़ली हीरों और चमकदार नगों को अपने पास सहेजकर रखने लगा।

वो उन्हें प्लास्टिक के ट्रांसपेरेंट डिब्बों में रखता,
जिनमें नीचे रुई बिछी होती थी — बिल्कुल जौहरियों की तरह।
वो उन नगों को रोशनी में घुमाकर ऐसे दिखाता,
मानो कोई बेशकीमती खज़ाना हो।

मज़ेदार बात ये थी कि उसकी शक्ल भी धीरे-धीरे उस हॉरर शो के एक किरदार से मिलने लगी थी —

शायद वह उस किरदार में कुछ ज़्यादा ही डूब गया था।

जब भी उसके पास कोई नया 'हीरा' आता, हमें देखने के लिए बाकायदा अपॉइंटमेंट लेना पड़ता था!
वो बड़ी-बड़ी आंखों में चमक लिए हीरों को बड़े गर्व से दिखाता था।

याद है मुझे अपने बचपन की वो मस्तियाँ, जब हम सब कीड़े-मकौड़ों से खेला करते थे।
चाहे वो भौंरे हों, तितलियाँ हों या अन्य कोई कीट, सभी मस्तियों का हिस्सा होते थे।

अच्छी दिखने वाली चीज़ें मिलना बहुत मुश्किल होता है, और यह बात प्रकृति ने मुझे भौंरों के ज़रिए सिखाई थी।

जब हम बच्चे लाल रंग का भौंरा पकड़ते थे, तो वह बड़ी मुश्किल से पकड़ा जाता था।
वह सच में बेहद खूबसूरत और चालाक होता था।

और जिस भौंरे को हमने उसके रंग की वजह से ‘मिलिट्री’ नाम दिया था,
वह लाल भौंरे की तुलना में काफी आसानी से पकड़ लिया जाता था।

जब हम बच्चे आपस में भौंरों का सौदा करते थे, तो दो मिलिट्री भौंरों के बदले एक लाल भौंरा मिलता था।

और वो दिन भी क्या खूब होते थे जब मोहल्ले में कहीं पानी भर जाता था,
और हम सभी के कदम अपने आप उसी ओर मुड़ जाते थे…
तेज़ बारिश में नहाते, मस्ती करते,
और कभी-कभी तो "ब्राज़ील ला ला ला ला..." भी गुनगुनाते थे।

वो दिन भी याद हैं जब बचपन में हम घर के सामने लगे पेड़ और झाड़ियों के आस-पास घूमते रहते थे।
एक बार हम खेलते-खेलते कुछ ज़्यादा ही अंदर चले गए —
तब हमें उन पेड़ों के बीच एक गुफा जैसी जगह दिखी।
वो कोई पहाड़ी गुफा नहीं थी,
बल्कि पेड़-पौधों और झाड़ियों को काट-छाँट कर बनाई गई एक छुपी हुई जगह थी।
वाह! क्या अद्भुत नज़ारा था वो...

थोड़ी देर बाद वहाँ हमें एक ताश के पत्तों की गड्डी मिली,
और तभी हमें समझ आया —
ये जगह शायद जुआ खेलने वालों ने बनाई थी!

खेल-कूद भी क्या खूब किस्म-किस्म के थे, जिनमें कुछ खेल ऐसे थे जो जेब-खर्च से कोसों दूर थे।

गिट्टियों को एक के ऊपर एक सजाना, फिर बॉल मारकर उन्हें गिरा देना और दौड़ जाना…
फिर ग्रुप का वही खिलाड़ी बॉल की चोट से बचते हुए उन्हें दोबारा उसी क्रम में लगाने की कोशिश करता।

और कभी-कभी तो खेल का असली मक़सद ही बस एक-दूसरे को बॉल की चोट देना होता था —

या यूँ कहें कि बॉल से एक बढ़िया 'चैका' लगाना ही सबसे बड़ा मज़ा था! 😅

याद है मुझे वो एक लड़का, जो हर दिन मोहल्ले में नए-नए बॉलर्स की स्टाइल में बॉलिंग करके हमें दिखाता था।
कभी जोश में कहता — ‘देखो, आज ज़हीर खान की तरह बॉल डालूंगा!’
तो कभी कहता — ‘अब देखो ब्रेट ली का स्टाइल!’
मज़ेदार बात ये थी कि हर बार उसकी बॉलिंग एक ही जैसी होती थी —
न ज़हीर की स्विंग, न ब्रेट ली की स्पीड, और तो और स्टाइल भी कहीं से मेल नहीं खाता था।
लेकिन उसे पूरा यक़ीन होता था कि उसने हूबहू वैसे ही फेंका है।
हम सब अपनी हँसी दबाकर एक-दूसरे की ओर मुस्कुरा देते।
उसकी वो मासूमियत, वो जोश — आज भी चेहरे पर मुस्कान ला देता है।

मोहल्ले में हमारे ये भी रिकॉर्ड दर्ज रहते थे कि सबसे लंबा स्ट्रेट सिक्स किसने मारा है,
सबसे लंबा लेग साइड सिक्स किसने मारा है,
और सबसे लंबा ऑफ साइड सिक्स किसने मारा है।

एक बार तेज़ हवा — कहें आँधी — चल रही थी, और हम सब मोहल्ले की सड़क पर क्रिकेट खेल रहे थे।
तभी हमारे ग्रुप के एक लड़के ने ऑफ साइड सिक्स मारा।
बॉल ऊपर ही थी कि अचानक एक ज़ोरदार झोंका आया,
और वो हल्की प्लास्टिक की बॉल उड़ती हुई बहुत दूर — किसी के टीन के शेड से जा टकराई।

उस लड़के का सेलिब्रेशन देखने लायक था।
बल्ला हवा में उठाया और पूरे जोश से दहाड़ते हुए बोला —
"ऑफ साइड का सबसे लंबा छक्का!"
और सच कहें तो — वो रिकॉर्ड फिर कोई नहीं तोड़ पाया।

कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि हम सब मिलकर एक छोटा सा चूल्हा बनाते,
और उसमें पुलाव पकाते।
कोई अपने घर से चावल लाता, कोई तेल, कोई मसाले,
कोई प्याज़, कोई मिर्च — और कोई सब्ज़ियाँ...
और पता नहीं क्यों, उस पुलाव का स्वाद इतना ज़बरदस्त होता था कि दिल करता था खाते ही जाओ।

पुलाव की बात से याद आया —

हमारे ग्रुप में एक लड़का था, जो अक्सर मेरे घर आकर मुझे क्रिकेट खेलने के लिए बुला लेता था।

फिर हम दोनों ही निकल जाते थे, तीसरे का इंतज़ार भी नहीं करते थे — ये सोचे बिना कि कीपिंग कौन करेगा!

एक बार वो मुझे बुलाने आया, और उस दिन घर में यख़नी पुलाव बन रहा था।

मैं बिना कुछ खाए उसके साथ बाहर निकल गया, और थोड़ी देर में बाकी दोस्त भी आ गए।

पता नहीं क्यों, उस दिन मैं एकदम अलग जोश में था —

सिक्स पर सिक्स मारे जा रहा था!

तभी वो लड़का हँसते हुए बोला —

"शब्बीर, बस कर यार! वो तो मुझे मालूम है कि तू पुलाव खा के आया है..."

मैं हँसा तो वो बोला —

"अलग ही ख़ुशबू आ रही थी सौंधी-सौंधी!"

क्रिकेट में तो हर कोई चौका और छक्का जानता है, लेकिन हमारे मोहल्ले में एक और था — ‘दस्सा’।
जिसका मतलब था — जो खिलाड़ी बॉल को रेलवे ट्रैक तक पहुँचाएगा, उसे दस रन की बढ़त मिलती थी।
और मज़े की बात ये थी कि कभी-कभी इनाम में मिलता था च्युइंगम के साथ फ्री में दिया जाने वाला प्लास्टिक का छोटा डायनासोर!

हमारे घर से कुछ दूरी पर हमारे ग्रुप का एक लड़का और था —
जो बिल्कुल डॉ. अब्दुल कलाम साहब जैसी माँग काढ़ता था,
पर उसके माथे पर लटकने वाले दो छल्ले कुछ ज़्यादा ही घुमावदार थे।

मुझे नहीं पता था कि मेरे चाचा को भी उसकी हेयरस्टाइल दिलचस्प लगती थी।
वो भी उसके बालों पर नज़र रखते और मन ही मन मुस्कुराते रहते।

एक दिन जब वो खेलने नहीं आया, तब चाचा बोले—
“क्यों, वो नहीं आया जो बड़े क़रीने से बीच की माँग काढ़ता है, डॉ. अब्दुल कलाम जैसी…”

जब वो किसी दिन आया, तो चाचा ने उसे देखते हुए कहा—
“हाँ, तू है न आज... तू है न...”

फिर अचानक उल्टी दिशा में मुड़कर मंद-मंद मुस्कुराने लगे।

हमारे चाचा उस समय बड़े फ़नी टाइप के थे।
उन्हें अगर कोई ग्रीटिंग्स भेजे, तो बहुत अच्छा लगता था।
एक बार पोस्टमैन आया, तो उन्होंने पूछा —
"क्यों, हमारा आया है क्या कुछ?"
पोस्टमैन बोला — "नहीं।"
तो चाचा झुँझलाकर बोले — "अरे, दे जाया करो यार!"
अब इसमें हँसी की बात नहीं कि जब आया ही नहीं तो वो दे कैसे जाएगा?
उनके ऐसे कारनामे एक नहीं, कई थे।

हमारे ग्रुप का एक छोटा लड़का, जो अक्सर एक गीत गुनगुनाया करता था — शायद उसका फेवरिट था।
एक दिन चाचा ने उसे रोका और बोले —
"बेटा, ऐसे नहीं, ऐसे गाओ..."
और फिर उस गाने में से एक शब्द हटाकर उसके पापा का नाम जोड़ दिया!

बचपन की कच्ची अक़्ल तो थी ही — लड़का वही गाना अपने घर पर गुनगुनाने लगा।
उसके चाचा ने सुन लिया, डाँट लगाई और पूछा —
"ये किसने सिखाया?"
तो लड़के ने सीधा नाम ले लिया...
फिर उसके चाचा हमारे चाचा से बोले —
"आप बड़े हैं, सोचते हैं कि आप अच्छी बातें सिखाओगे... पर जब आप ही ऐसा करोगे, तो हम किस पर विश्वास करें?"
हमारे चाचा का वही जवाब —
"अरे, मैंने नहीं…"

उन्हें अपने दाँतों और मसूड़ों की सेहत का बड़ा ख़्याल रहता था।
अक्सर क्लोज़अप टूथपेस्ट का ऐड गुनगुनाते रहते —
"क्या आप क्लोज़अप करते हैं... दुनिया से नहीं डरते हैं..."

मैं अक्सर दादा की परचून की दुकान पर बैठता था।
कभी-कभी वो मोहल्ले की एक उम्रदराज़ औरत का नाम लेकर कहते —
"शब्बीर, दादा की दुकान से ठुठरे-ठुठरे चने लेकर आ,
मैं बताऊँगा वो औरत चने कैसे खाती है!

जब मैं चने लाता, तो वह अलग ही फ़नी चेहरा बनाकर
मुँह चलाते हुए चने चबाकर दिखाते।
और हम सब हँसी रोकते-रोकते लोटपोट हो जाते।

हमारे घर के पास एक आदमी था —
जिसे ऊँची आवाज़ में गाना गाने का बड़ा शौक था।
वो गाता —
“मत प्यार करो परदेसी से…”
या
“प्यार कभी कम नहीं करना, कोई सितम कर देना…”

चाचा उन्हीं के अंदाज़ में गाकर दिखाते।
और ये सब सुनना एक कॉमेडी शो जैसा लगता था।

एक बार हल्की बारिश हुई थी —
ज़मीन भी गीली नहीं हुई थी —
पर चाचा को बरसात वाली फीलिंग आ गई थी।
उन्होंने कहा:
“अब तो ताज़े-ताज़े जामुन मिल जाएँ... नमक डालकर... हिलाकर नाई...”

एक बार उन्होंने मुझे 10 रुपये का नोट थमाया और कहा:
“कुछ बढ़िया-बढ़िया चीज़ें लेकर आ खाने को...”
मैं गया और चूरन, सुपारी वग़ैरह ले आया, और आठ रुपये लौटा दिए।
उन्होंने पैकेट देखकर कहा:
“ये क्या ले आया, कुछ अलग ही लाता... हटके नाई!”

याद है वो दिन, एक शाम —
मैं, मेरे सभी भाई और बुआ के बच्चे,
पटरियों के किनारे-किनारे चलते हुए
बड़े पुल की सैर पर निकल पड़े थे।

पटरियों के किनारे-किनारे हम सब मस्ती करते हुए चल रहे थे। चारों ओर हरियाली थी, हवा ठंडी थी और दिलों में बेफिक्री। सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था।

हम आगे बढ़ते ही जा रहे थे कि सामने से चाचा जी आते दिखे।
उन्हें देखते ही सबकी जान हलक में आ गई। कोई सोच भी नहीं सकता था कि वहां चाचा जी मिल जाएंगे!

बुआ का एक लड़का इतना डर गया कि झाड़ियों में छिपने की कोशिश करने लगा,
पर उसका वजन थोड़ा ज़्यादा था।

जैसे ही वो नीचे उतरा,
ढलान ने उसे पकड़ लिया —
और वो फिसलता चला गया जैसे कोई स्लाइड हो —

वो तब तक रुका ही नहीं जब तक ढलान खत्म न हो गई। 🤣

हम भी जैसे-तैसे खुद को सँभालकर झाड़ियों में छिप गए।
पर...
घर पहुँचते ही पता चला कि चाचा जी ने सब देख लिया था!

यही तो था हमारा बचपन —
जहाँ शामें भी होती थीं,
अब तो दिन के बाद सीधे रात हो जाती है।

क्या हम सोते हुए भी जागते हैं? एक अनुभव, एक विज्ञान

क्या हम सोते हुए भी जागते हैं? एक अनुभव, एक विज्ञान

एक रात मैं अपने कमरे में बेड पर सोया हुआ था। यह रात बाकी रातों जैसी ही थी। उस दिन न कोई ख्वाब था और न ही कोई बेचैनी। मैं बेसुध सो रहा था। शायद एक-दो घंटे ही सोया था कि अचानक मुझे एक झटका सा महसूस हुआ और मैं जाग गया।

मुझे वह एक क्षण अच्छी तरह याद है — जिस क्षण भर में मुझे एहसास हुआ कि मैं बेड से गिर रहा हूँ, और अगले ही पल मैंने खुद को करवट लेकर बचा लिया।

शायद मैं नींद में करवट बदल रहा था और इस बात से अनजान था कि मैं नीचे ठोस जगह पर गिरने वाला हूँ। पर जैसे कोई मेरी रूह से बोला हो, “मोड़ लो अपना रुख, नीचे गिरने से बच जाओगे।”

मुझे जागते हुए भी वह नींद का क्षण याद है, जब मैं गिर रहा था और तेज़ी से खुद को गिरने से बचाया। इसलिए झटका सा लगा और मैं गहरी नींद से जाग उठा।

हैरानी की बात ये थी कि नींद में ही मैंने खुद को दूसरी ओर मोड़ लिया। और जब मैं ऐसा कर रहा था, तभी अचानक जागते हुए महसूस किया — मैं तो गिरने ही वाला था।

उस समय जैसे कोई आंतरिक शक्ति मेरी रक्षा कर रही थी। मैं चुपचाप लेटे-लेटे सोचता रहा — यह क्या था? क्या यह मैं था या कोई और मेरे लिए जाग रहा था? क्या हम सोते हुए भी जागते हैं? या फिर ईश्वर ने हर इंसान के अंदर एक चौकीदार रखा है, जो नींद में भी उसकी हिफाजत करता है? 😃

इसका जवाब neuroscience और sleep science में छुपा है। चलिए इसे एक-एक करके समझते हैं:

🔍 क्या हम सोते वक्त भी जागते हैं?
हाँ, कुछ हद तक।
हमारी नींद पूरी तरह से बेहोशी नहीं होती। दिमाग सोते वक्त भी कुछ बुनियादी गतिविधियाँ जारी रखता है — जैसे शरीर की स्थिति पर नजर रखना, आवाज़ों का ध्यान रखना, और संतुलन का ख्याल रखना। इस स्थिति को हम "hypnagogic awareness" या आंशिक चेतना कह सकते हैं।

🧠 कैसे पता चला कि मैं गिरने वाला था?
दिमाग का एक हिस्सा, vestibular system यानी संतुलन और गति का केंद्र, सोते वक्त भी सक्रिय होता है। जब आप नींद में करवट बदलते हैं और शरीर का संतुलन अचानक बदलता है, तो यह सिस्टम "खतरे का संकेत" भेजता है — जैसे:
⚠️ "तुम गिर रहे हो!"

और आपका motor system, जो शरीर को नियंत्रित करता है, तुरंत प्रतिक्रिया करता है — भले ही नींद पूरी तरह से टूटी न हो।

🛡️ मैंने खुद को कैसे बचाया?
यह एक स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया थी — जैसे आपको सपने में लगे कि आप गिर रहे हैं और आप झटके से उठ जाते हैं। यह एक रिफ्लेक्स क्रिया होती है, जैसे हम किसी गर्म चीज़ को छूकर हाथ तुरंत हटा लेते हैं — बिना सोचे समझे।

इसका मतलब यह है कि आपका दिमाग नींद में भी आपकी सुरक्षा में लगा रहता है। इसलिए मैंने खुद को तुरंत दूसरी तरफ मोड़ लिया।



🤔 क्या यह चमत्कार था?
यह एक चमत्कार जैसा जरूर लग सकता है, लेकिन यह एक प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली है जो हमें चोट से बचाती है।

🧬 सरल भाषा में कहें तो:
आप सोते वक़्त पूरी तरह बेसुध नहीं होते। आपका दिमाग आपकी शारीरिक स्थिति और संतुलन पर नज़र बनाए रखता है। जब कोई खतरा महसूस होता है, तो वह बिना आपको जगाए तुरंत प्रतिक्रिया करता है — जैसे गिरने से पहले आपको बचा लेना।

दिल और आत्मा के अदृश्य रिश्ते

दिल और आत्मा के अदृश्य रिश्ते

कभी-कभी ज़िंदगी में कुछ ऐसा घटता है, जो हमारी समझ से परे होता है। जैसे — कोई हमें दूर कहीं से याद कर रहा हो, हमारे बारे में सोच रहा हो… और उसी पल हम भी अनायास ही उसके ख्यालों में खो जाएँ। या फिर कोई हमें कहीं से महसूस कर रहा हो, और बिना किसी वजह के हम उसके सामने पहुँच जाएँ — जैसे कोई अदृश्य डोर हमें खींच लाई हो।

एक बार की बात है — मैं अपने कमरे में था, जो घर की दूसरी मंज़िल पर है। मैं अपने पर्सनल कंप्यूटर पर कुछ काम कर रहा था। उसी वक़्त मेरे चाचा को मुझसे एक ज़रूरी काम था, और वे नीचे से मेरी खिड़की की ओर देख रहे थे — जैसे उन्हें यक़ीन हो कि मैं वहीं हूँ। लेकिन उससे पहले कि वे मुझे देख पाते, मैंने खुद ही खिड़की से झाँककर उन्हें देख लिया — जैसे उनके मन की पुकार सीधे मुझ तक पहुँच गई हो।

यह पहली बार नहीं था। मुझे कई बार ऐसा अनुभव हुआ — ख़ासकर अपने मोहल्ले के दोस्तों के साथ। जब भी कोई मुझे दिल से याद करता, मैं किसी अनजानी प्रेरणा से खुद ही उनके पास पहुँच जाता। यह कोई संयोग भर नहीं था, यह एक अहसास था — एक जुड़ाव, जो शब्दों से परे था।

मगर इन सबमें एक वाक़या ऐसा था… जो इन तमाम अनुभवों से कहीं ज़्यादा गहरा और असरदार था।

एक लड़की थी — वह हमारे घर अक्सर मेरी माँ से कुछ सीखने के सिलसिले में आया करती थी।

न जाने कब, उसे मुझसे प्रेम हो गया — जिसमें मेरी कोई भूमिका नहीं थी। मैंने तो उसे कभी सही से देखा तक नहीं था।

मैं उसे नज़रअंदाज़ करता रहा, क्योंकि उस समय मेरा पूरा ध्यान बोर्ड एग्ज़ाम की तैयारी में लगा हुआ था। मैं उस वक़्त टीनएज के नाज़ुक दौर से गुज़र रहा था, जहाँ दिल और दिमाग़ के बीच अक्सर टकराव चलता रहता है।

फिर एक दिन ऐसा हुआ, जब उसने खुद ही यह साफ़ कर दिया कि वह मुझसे बहुत गहराई से जुड़ चुकी है।

मुझे तब हैरानी हुई, जब एहसास हुआ कि वह ऐसे परिवेश से आती है, जो मेरे घर-परिवार और समाज से बिल्कुल अलग था। बात सिर्फ प्रेम की नहीं थी — हमारे बीच धर्म की ऊँची दीवारें खड़ी थीं। मेरा धर्म अलग था, उसका धर्म भी अलग था, और वह अपने धर्म की एक उच्च जाति से थी — जहाँ प्रायः केवल समान वर्ण में विवाह को ही मान्यता दी जाती है। वहाँ अंतर-जातीय विवाह भी कठिन होता है, और मेरे धर्म से उसका संबंध उनके समाज के लिए और भी बड़ा विषय था। क्योंकि यहाँ तो सिर्फ जाति नहीं, बल्कि धर्म ही अलग था। तभी मुझे समझ आ गया था कि यह रिश्ता आसान नहीं होगा।

जब मैंने कोई जवाब नहीं दिया, तो वह मुझसे कुछ नाराज़-सी हो गई। लेकिन उस समय मेरी तरफ़ से कोई गलती नहीं थी। मैं भले ही टीनएजर था, लेकिन हर निर्णय लेने से पहले उसके परिणामों को तौलने की आदत मुझमें पहले से थी।

मैं उन लोगों में नहीं था जो किसी की ज़िंदगी से खेल जाएँ — और वह भी वैसी नहीं थी। उसका इरादा भी पवित्र था; वह मुझसे जीवनभर का साथ चाहती थी।

उसकी खूबसूरती और सच्ची भावनाओं के बावजूद, मेरा मन एक ही बात में उलझा रहा — इस रिश्ते में आने वाली संभावित कठिनाइयाँ।

जीवन की उलझनों और सामाजिक दबावों को देखते हुए, मैंने एक दिन शांत मन से निर्णय लिया, और सम्मानपूर्वक उसका हमारे घर आना बंद करवा दिया।

शायद सच्चा प्यार करने वालों को मेरा यह फ़ैसला ग़लत लगे, लेकिन मैंने जो किया, वह उसके परिवार की भलाई के लिए किया था — और इसीलिए, अपने दिल को समझाते हुए, मैंने खुद को सही ठहराया।

वक़्त बीतता गया…

एक दिन मैं चाय पीने के बाद अपने कमरे की सफ़ाई कर रहा था। सफ़ाई करते-करते जैसे ही मैं अंदर वाले कमरे में पहुँचा, न जाने क्यों, मैं अचानक तेज़ी से अपने कमरे की ओर भागा।

मैंने खिड़की से बाहर झाँका — वही लड़की, अपने भाई के साथ, हमारे घर के सामने से गुज़र रही थी।

उस समय मेरा इस बात पर ध्यान नहीं गया कि बाहर कोई आवाज़ नहीं आई थी, कोई हलचल नहीं थी — फिर भी मैं अचानक बाहर क्यों झाँकने चला गया।

थोड़ी देर बाद — उसी दिन — मैं वॉशरूम में था। जैसे ही बाहर निकलने को था, मेरा ध्यान अचानक दरवाज़े की कुंडी से हटकर ऊपर वाले रोशनदान की तरफ चला गया।

हमेशा की तरह कुंडी की ओर देखते हुए वॉशरूम से बाहर निकलने के बजाय, आज मैंने दरवाजे के रोशनदान से बाहर देखा — और वही लड़की, फिर से, अपने भाई के साथ हमारे घर के सामने से गुज़र रही थी। कुछ देर पहले जाते हुए देखा था, अब लौटते हुए देख रहा था।

तभी मुझे अचानक एहसास हुआ — जब भी वह हमारे घर के सामने से गुज़रती थी, मैं अनजाने में उसे देखने के लिए बाहर झाँकने लगता था।

पता नहीं ऐसा क्यों होता था कि जब वो हमारे घर के सामने से निकलती, तो मैं अनायास ही बाहर झांकने चला जाता — जबकि उस वक्त मुझे ये भी नहीं मालूम होता था कि मैं आखिर किसे देखने जा रहा हूँ।

मैं भले ही जान-बूझकर उसे याद न करता था, लेकिन मेरा मन उससे जुड़ा हुआ था।
मैंने उसे चाहा या नहीं, यह कहना कठिन है — लेकिन वह मेरे जीवन का हिस्सा बन चुकी थी।

इसलिए जब वह आसपास होती थी, मेरा अचेतन मन जैसे खुद-ब-खुद सतर्क हो जाता था।
शरीर अनायास प्रतिक्रिया देता था — जैसे अचानक खिड़की की ओर दौड़ पड़ना, बिना सोचे-समझे।

कुछ संबंध ऐसे होते हैं, जो शब्दों में समझाए नहीं जा सकते। इंसानों के बीच एक सूक्ष्म, अदृश्य भावनात्मक धागा जुड़ जाता है — जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है।

मेरा अंतर्ज्ञान बार-बार सही सिद्ध हो रहा था, क्योंकि वो भावनाएँ सच्ची थीं। मेरी चेतना, मेरे भीतर का गहरा अस्तित्व, उससे किसी न किसी रूप में जुड़ चुका था।

निष्कर्ष:
यह सिर्फ प्रेम नहीं था — यह आत्मा से आत्मा का जुड़ाव था।
मन भले कुछ और कहे, लेकिन आत्मा जिसे पहचान ले, उसे नकारा नहीं जा सकता।
और जब आत्माएँ जुड़ जाती हैं — तो फिर इंसानी चेतना से परे भी बहुत कुछ महसूस होने लगता है।

फाल्गुनी और हिमेश: मेरे बचपन और टीनएज की आवाज़ें

फाल्गुनी और हिमेश: मेरे बचपन और टीनएज की आवाज़ें

वैसे तो हम सभी ने कई बड़े-बड़े शख्सियतों की गायकी सुनी है, उन्हें पसंद किया है और आज भी करते हैं। हम उन्हें सुनते हैं, उनके हुनर को मानते हैं। मैंने भी उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान साहब को खूब सुना है, लता मंगेशकर जी को भी, और रविंद्र जैन जी द्वारा "राम तेरी गंगा मैली" में दिया गया संगीत भी मुझे बहुत पसंद है। ख़ासकर इन तीनों संगीतकारों का कोई जवाब नहीं।

पर इन तीनों के अलावा भी दो संगीतकार हैं, जिन्होंने मेरे जीवन में एक सुनहरी छाप छोड़ी है — फाल्गुनी पाठक जी और हिमेश रेशमिया जी।
आज भले ही मैं उन्हें उतना नहीं सुनता, लेकिन बचपन और टीनएज में मेरी तरह कई लोगों ने उन्हीं लम्हों को जिया होगा, जिनका ज़िक्र मैं करने जा रहा हूँ।

तो शुरुआत करते हैं फाल्गुनी पाठक जी से।

बचपन में जब मैं डेक के पास बिखरी हुई कैसेट्स को सही क्रम में रखने का काम करता था, तब मुझे सबसे अलग एक लड़की की तस्वीर अपनी ओर खींचती थी — फाल्गुनी पाठक जी की।
हंसती, मुस्कुराती, बॉय कट में एक लड़की, जो लड़कों जैसे कपड़े पहने होती थी। बचपन की कच्ची समझ में मैं यही सोचता था कि ये लड़कों जैसे कपड़े क्यों पहनती हैं।
लेकिन जब उन्हें सुनता, तो हैरान रह जाता — कितनी मीठी और सुरिली आवाज़ है!

पर एक चीज जो बार-बार मुझे फाल्गुनी पाठक जी से जोड़ती थी, वह था उनका वह गीत जो अक्सर टीवी पर आता था — "मेरी चुनर उड़ उड़ जाए"।
इस गीत को देखकर मैं एक अलग ही दुनिया में खो जाया करता था।
अकेले में कभी-कभी डर भी लगता था, क्योंकि उस समय मैं बहुत छोटा था, और इस गीत में दिखाई गई चीजें अद्भुत और अलौकिक लगती थीं — जैसे शुरुआत में सीढ़ियों से उतरती हुई एक सख्त दिखने वाली महिला, तस्वीर से निकलकर जीवित हो जाने वाली औरत, और फिर ऊनी नस्ल की गाय।

ये सब मुझे कभी डरावना तो कभी अद्भुत लगता था, खासकर जब घर पर अकेला होता।

एक और गीत था — "इन्धना विनवा"।
इस गीत में अभिनेत्री द्वारा पहना गया कार्निवल कॉस्टयूम मेरी समझ से बाहर था। बचपन में वह मास्क और पोशाक फैशनेबल नहीं, बल्कि अजीब से लगते थे।
इस गीत का एक गुजराती वर्जन भी था, जो मेरी दिवाली की यादों से जुड़ा हुआ है।

याद है, एक बार दिवाली के दिन पापा हमारे घर का पूरा म्यूज़िक सिस्टम अपनी दुकान ले गए थे। वहाँ सिर्फ फाल्गुनी पाठक जी के ही गीत बज रहे थे —
🎶 "इन्धना विनवा गई थी मोरे सैंया..."
🎶 "आई परदेस से परियों की रानी..."
🎶 "कैसे आंख मिलाऊं..."
🎶 "चूड़ी जो खनकी..."

वो दिवाली क्या खूब थी!
हर ओर अद्भुत रौनक थी, ऐसी कि आज के समय में उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

पापा वेल्डिंग में इस्तेमाल होने वाली गैस से गुब्बारे फुला रहे थे, जिन्हें आग से फोड़ने पर इतनी धमाकेदार आवाज़ आती थी कि बड़े से बड़ा पटाखा भी फीका लग रहा था। दुकान पर उनके दोस्तों का जमावड़ा था, संगीत की धुनें थीं, रोशनी थी, चहल-पहल थी, और चारों ओर मिठाई, नारियल, खील, बतासों की खुशबू फैली हुई थी — और फिर रात को रिक्शे पर म्यूज़िक सिस्टम और गैस का सारा सामान लादकर घर लौटना... मोहल्ले में भी वही रौनक थी, वही चमक-दमक हर कोने में बिखरी हुई थी, और फाल्गुनी जी के गीत — जैसे उसी पल की धड़कन बन गए थे।

कसम से, वैसी दिवाली फिर कभी नहीं आई।

फिर जब टीनएज का दौर आया, तो एक और सितारा चमका — हिमेश रेशमिया जी।
वो भी फाल्गुनी पाठक जी की तरह काफी लंबे समय तक छाए रहे।

फाल्गुनी पाठक जी के संगीत की एक अलग सी मिठास थी, और हिमेश जी के संगीत में एक अलग ही दर्द, दीवानगी और पकड़।
आज जब मैं उनके कुछ गीत सुनता हूँ, तो टीनएज के वो पल फिर से मन में जाग उठते हैं।

याद है, जब मैं ट्यूशन पढ़ने जाया करता था अपने मोहल्ले के दोस्तों के साथ — क्या दिन थे वो!
हर गली, हर नुक्कड़, हर दुकान में सिर्फ हिमेश जी के ही गीत बजते थे —

🎶 "आपकी खातिर मेरे दिल का जहाँ है हाज़िर..."
🎶 "तू याद न आये ऐसा कोई दिन नहीं..."
🎶 "ओ... हुज़ूर, तेरा तेरा तेरा सुरूर..."
🎶 "आहिस्ता आहिस्ता..."

याद है, एक बार ग्वालियर में एक पैलेस में शादी का रिसेप्शन था।
मेरी फैमिली उस जगह का रास्ता पूछ-पूछ कर उस मुकाम तक पहुँच रही थी। वहाँ भी हिमेश जी का ही जलवा था —

🎶 "ज़र्रे ज़र्रे से मैं तेरी आहट सुनता हूँ, तेरे ही ख्वाबों की झालर में बुनता हूँ..."
🎶 "तू ही मेरे अरमानों में, तू ही मेरे अफसानों में..."
🎶 "तू ही आरज़ू है, तू ही मेरा प्यार है..."
🎶 "अफसाना बनाके भूल न जाना..."

हिमेश जी द्वारा "मैं जहाँ रहूं" गीत भी हर दिल पर छाया हुआ था।
इसे कृष्णा बेउरा जी ने राहत फ़तेह अली ख़ान साहब के साथ गाया था, और इसके बोल जावेद अख्तर साहब ने लिखे थे।

एक और गीत था — "आपकी कशिश", जिसे कृष्णा बेउरा जी ने हिमेश जी के साथ गाया था, और इसके बोल समीर जी ने लिखे थे। वो गीत भी लाजवाब था:

"आपकी कशिश सरफ़रोश है,
आपका नशा यूँ मदहोश है,
क्या कहें तुमसे, जाने जा
गुम हुआ होश है..."

इस गीत में फीमेल सिंगर अहीर जी की आवाज़ भी बहुत दिल को छूने वाली थी —
"जाना ये, जाना, ये मैंने जाना,
तू मेरा, तू मेरा दीवाना..."

गीतकार के तौर पर समीर जी का भी हिमेश जी के संगीत में बहुत बड़ा योगदान रहा।

बस यही थे वो पल — जो आज भी याद आते हैं, तो मुस्कान भी लाते हैं और आँखें भी नम कर जाते हैं।
फाल्गुनी पाठक जी और हिमेश रेशमिया जी — मेरे बचपन और टीनएज के वो संगीतकार, जिनकी धुनों में मेरा पूरा बचपन और जवानी महकती है।

हाइजीन बनाम सोच: क्या सिर्फ साफ़-सफाई ही काफी है?

हाइजीन बनाम सोच: क्या सिर्फ साफ़-सफाई ही काफी है?

हाइजीन, हाइजीन, हाइजीन...

आजकल यह शब्द सोशल मीडिया से लेकर रोज़मर्रा की बातचीत तक हर जगह सुनाई देता है — विशेष रूप से जब बात स्ट्रीट फूड की हो। जैसे ही किसी सड़क किनारे खाने का वीडियो वायरल होता है, कमेंट सेक्शन में लोग तुरंत हाइजीन पर सवाल उठाने लगते हैं।

– “छि! इसने हाथ नहीं धोए।”
– “दस्ताने नहीं पहने।”
– “बाल क्यों खुले हैं?”

अगर कोई विदेशी ब्लॉगर भारतीय स्ट्रीट फूड का आनंद ले रहा हो, तो टिप्पणियाँ और भी तीखी हो जाती हैं — “कितना अनहाइजीनिक है!”

बेशक, यह बात तो तय है कि खाना बनाते और परोसते समय स्वच्छता यानी हाइजीन का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है — साफ़ माहौल, ढकी हुई चीज़ें, स्वच्छ बर्तन, साफ़ पानी और ताज़ी सामग्री — ये सब स्वास्थ्य की दृष्टि से अनिवार्य हैं।

लेकिन क्या हर वह तरीका जो आज की आधुनिक हाइजीनिक कसौटियों पर खरा न उतरे, उसे “अस्वच्छ” या “गंदा” कहा जा सकता है?

हर संस्कृति की अपनी भोजन परंपरा होती है। पुराने समय से लोग बिना दस्ताने और हेयरनेट के भी भोजन बनाते और परोसते आए हैं। क्या केवल आधुनिक उपकरणों और नियमों की कमी उस भोजन को अमान्य बना देती है?



"झूठा मत खाओ" — लेकिन सोच का क्या?

बचपन से ही हमें सिखाया गया है कि किसी का झूठा मत खाना। और यह सीख बुरी नहीं है — स्वास्थ्य की दृष्टि से यह एक अच्छी आदत है।
लेकिन कभी-कभी यह सोच इतना गहरा असर कर जाती है कि हम न केवल दूसरों के झूठे से परहेज़ करने लगते हैं, बल्कि भावना और सामाजिकता से भी।

अब सोचिए — कुछ लोग मिलकर एक ही प्लेट में दाल-चावल खाना पसंद नहीं करते, लेकिन अगर उसी प्लेट में लज़ीज़ बिरयानी परोसी जाए, तो झूठा-मूठा सब भूल जाते हैं।

यह दिखाता है कि हमारी "हाइजीन भावना" अक्सर स्वाद, वर्ग और ब्रांड से भी जुड़ी होती है।



अब आइए मक्खी और शहद पर

कई लोग खाद्य सामग्री में मक्खी बैठ जाने पर कहते हैं — “छि! इस पर मक्खी बैठ गई!”
लेकिन वही लोग शहद को बड़े चाव से चाटते हैं — बिना सोचे कि वह कैसे बनता है।

मधुमक्खी पूरे दिन फूलों से रस इकट्ठा करती है और उसमें अपनी लार मिलाकर छत्ते में शहद बनाती है।
लेकिन साधारण मक्खी अगर रोटी पर बैठ जाए, तो हमें गंदा लगने लगता है।
शहद में लार चलती है, पर रोटी पर बैठी मक्खी बर्दाश्त नहीं।

सोचिए —
अगर चाय में मक्खी गिर जाए, तो इंसान पूरी चाय फेंक देता है।
लेकिन अगर वही मक्खी घी में गिर जाए, तो लोग बस उसे निकाल देते हैं — और घी दोबारा इस्तेमाल करते हैं।

यह क्या सिर्फ हाइजीन है — या सुविधा के अनुसार बदलती सोच?

मक्खी वही है, पर बर्ताव अलग।
क्योंकि हमारी "गंदगी" की परिभाषा स्वाद, कीमत और अवसर से तय होती है — तर्क और सच्चाई से नहीं।

यानी, समस्या मक्खी में नहीं, हमारी सोच में है।



यीशु और असली शुद्धता की सीख

यह बात मुझे बाइबिल की एक घटना की याद दिलाती है — मत्ती 15:1–20 में वर्णन है कि कुछ फरीसी और शास्त्रियों ने यीशु से पूछा:

“तुम्हारे चेले खाना खाने से पहले हाथ क्यों नहीं धोते?”


यीशु ने उत्तर दिया:

“मनुष्य को अशुद्ध वह वस्तु नहीं बनाती जो उसके मुख में जाती है, बल्कि वह जो मुख से निकलती है — वही उसे अशुद्ध करती है।”

“जो कुछ मुख में जाता है, वह पेट में जाकर बाहर निकल जाता है; लेकिन जो बातें मन से निकलती हैं — जैसे द्वेष, घृणा, अभिमान — वही मनुष्य को वास्तव में अशुद्ध करती हैं।”


जब फरीसी और शास्त्रियों ने यह सवाल उठाया, तो यीशु ने अपने चेलों को इस बात के लिए नहीं टोका — बल्कि उन्होंने अवसर का उपयोग यह समझाने के लिए किया कि असली शुद्धता सिर्फ शरीर की नहीं, बल्कि मन, सोच और कर्म की होनी चाहिए।

यानी, साफ़ सोच, संवेदनशील व्यवहार और शुद्ध हृदय — यही असली हाइजीन है।



निष्कर्ष: संतुलन की ज़रूरत है

हाँ, हाइजीन ज़रूरी है।
हाँ, हमें स्वच्छ भोजन करना चाहिए।
लेकिन हमें दूसरों की संस्कृति को भी समझना और उसका सम्मान करना चाहिए।
झूठा खाने से परहेज़ ठीक है, पर झूठी सोच से नहीं।

मक्खी पर नाक चढ़ाने से बेहतर है — पहले अपनी सोच का छत्ता साफ़ करें।
हमें केवल थाली ही नहीं, मन भी स्वच्छ रखना चाहिए।

कर्मा: कुदरत का बदला

कर्मा: कुदरत का बदला

एक बार मेरी बुआ अपने मायके आई हुई थीं और एक-दो दिन के लिए हमारे घर पर रुकी थीं। एक रात अच्छी-खासी बातों की महफ़िल जमी हुई थी। चाय बन रही थी और इसके बाद हम सभी मिलकर एक अच्छी सी फ़िल्म देखने का भी प्लान बना रहे थे। मगर बातों का सिलसिला खूब चल रहा था, और उसी में बड़ा लुत्फ़ आ रहा था।

बातों के दौरान अचानक पता नहीं क्या मोड़ आया कि मेरा भाई अपने एक दोस्त के दोस्त का ज़िक्र करने लगा—या यूँ कहें कि वह उस पर हँस रहा था। भाई ने उसका नाम लेते हुए कहा कि जब भी वह किसी शादी में जाता है, उसे किसी न किसी लड़की से प्यार हो जाता है। फिर वह अपने दोस्तों से अक्सर इस तरह की बातें करता—

"यार, वो मुझे देख रही थी..."

और उसके सभी दोस्त हमेशा की तरह उसे समझाते—

"नहीं देख रही थी यार..."

तो उसका हमेशा रुआँसा होकर और झुँझलाकर तेज़ आवाज़ में जवाब होता—

"नहीं यार, देख रही थी, वो मुझे!"

यह सुनकर हम सब हँसने लगे।

यह बात सही है कि हर लड़की की नज़र हमेशा किसी खास मंशा से नहीं होती। लेकिन अगर कोई लड़की आपको देखती है, तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि वह आपसे प्यार करती है? या फिर आपको भी उससे प्यार करना चाहिए?

बात यहीं से निकलकर और मज़ेदार हो गई, जब बुआ ने अपने टीनएज दिनों का एक किस्सा सुनाया। उन्होंने कहा कि जब वे अपनी सहेलियों के साथ आँगन में काम करती थीं, तो बगल वाले घर का एक लड़का अक्सर उन्हें छत से देखा करता था। वे जल्दी-जल्दी काम निपटा लेतीं और वहाँ से हट जातीं। लेकिन यह बात उन्होंने कभी अपने भाइयों से नहीं कही—कहीं वे गुस्से में आकर उस लड़के को कुछ कर न दें।

"वो लड़का बुरा नहीं था," बुआ बोलीं, "बस एक आदत थी उसमें—ताक-झाँक करने की।"

हमें यह जानकर बहुत हँसी आई कि जो अंकल अब शांत, शरीफ़ और संस्कारी दिखते हैं, वे कभी ऐसे भी हुआ करते थे।

बातों का सिलसिला यूँ ही चलता रहा...

बुआ द्वारा सुनाया गया यह क़िस्सा बहुत पुराना था। ज़ाहिर सी बात है, तब उनकी शादी भी नहीं हुई थी, और शायद पापा की भी नहीं।

समय बीतता गया। बुआ ने जो पुराना क़िस्सा सुनाया था, उसी क़िस्से के लगभग एक साल बाद...

एक दिन मैं अपने चाचा के साथ बाहर बैठा था। उन्होंने उसी शख्स के बारे में बताया कि वह कल अपने घर के पास रहने वाली एक लड़की की शिकायत लेकर उसके चाचा के पास गया था।

उसने उस लड़की के चाचा से कहा—

"आपकी भतीजी, बगल में रहने वाले लड़के से रोज़ छत पर आकर बातें करती है। मैं रोज़ उन्हें बातचीत करते देखता हूँ।"

वही इंसान, जो किशोरावस्था में छत पर खड़ा होकर लड़कियों को देखा करता था, आज खुद किसी और की बेटी पर उंगली उठा रहा था।

कुदरत का खेल अजीब है।

वह इंसान, जो कभी ताक-झाँक करके मुस्कुराया करता था, आज उसी दिशा में बार-बार देख रहा है—पर अब ग़ुस्से और जलन के साथ।

जब वे दोनों हर रोज़ छत पर बातें करते थे, तो कुदरत जैसे बार-बार उसका ध्यान उसी दिशा में मोड़ देती थी...

कुदरत जैसे उसे यह सबक सिखा रही थी कि दूसरों के घर झाँकना क्या होता है।

शिकायत से कुछ नहीं होगा... कुदरत कर्मों के बदले खुद तय करती है—कब, कैसे और किसके ज़रिए।

आपको क्या लगता है, वह उस लड़की के चाचा से सिर्फ़ इसलिए शिकायत करने गया था क्योंकि उसे रिश्तों और समाज की परवाह थी? नहीं!

दरअसल, रंगीन मिज़ाज के बहुत-से लोगों में मैंने एक अजीब बात देखी है—जब वे किसी और को वही करते देखते हैं जो कभी वे खुद करते थे (या अब भी करते हैं), तो उनका दिल भीतर से जल उठता है।

जब खुद करते हैं, तो सब जायज़ लगता है। लेकिन जब कोई और करे, तो नफ़रत, जलन और ताने शुरू हो जाते हैं।

मुझे आज भी याद है मम्मी जिनसे कपड़े लाया करती थीं—अशोक भैया।

उनके प्लास्टिक बैग पर नीचे एक लाइन छपी होती थी—

"जैसी करनी वैसा फल, आज नहीं तो निश्चय कल।"

कुदरत अगर हिसाब करने बैठे, तो बरसों इंतज़ार कर सकती है।

फिर जब जवाब देती है, तो इंसान सिर्फ़ यही कहता है—

"पता नहीं ये सब मेरे साथ ही क्यों हो रहा है?"

लेकिन सच ये है कि कर्म हमेशा लौटते हैं।

और जो तकलीफ़ आप दूसरों को देते हैं, वही तकलीफ़ कई गुना होकर वापस आती है।

क्योंकि शुरुआत आपकी ही होती है...


यह लेख सच्ची घटनाओं से प्रेरित है। इसमें सम्मिलित सभी पात्रों की निजता का सम्मान करते हुए किसी का वास्तविक नाम प्रकाशित नहीं किया गया है।

आजकल के त्योहार: डिजिटल दुनिया ने कैसे बदल दी रौनक?

आजकल के त्योहार: डिजिटल दुनिया ने कैसे बदल दी रौनक?

याद है मुझे वो दिन, जब त्योहारों पर एक अलग ही रौनक छा जाती थी।

हर कोना महक उठता था, हर चेहरा मुस्कुराता था।
अब तो जैसे वो खुशबू कहीं खो सी गई है।

आजकल लोग डिजिटल दुनिया को दोषी ठहराते हैं,
लेकिन सच कहूँ तो वजह सिर्फ मोबाइल या इंटरनेट नहीं है।
असल में वो खुशबू कहीं और नहीं, हमारी रूह से ही गायब हो गई है।

याद हैं वो दिन,
जब त्योहारों पर घरों में पकवान बनते थे,
रसोई से उठती खुशबू दिल तक पहुँचती थी,
लोगों की मदद करना एक बोझ नहीं,
बल्कि दिल को सुकून देने वाला अनुभव होता था।

हर साल घरों में बजता धार्मिक संगीत,
त्योहारों को जीवंत कर देता था।
आज भी वही गीत बजते हैं,
लेकिन अब उनमें वो जान, वो आत्मा नहीं रही।
माहौल तो जैसे बनावटी सा हो गया है।

अब हर कोई मोबाइल में व्यस्त है,
चाहे कोई जरूरी संदेश न आया हो,
फिर भी मोबाइल थामे रहना जरूरी समझते हैं।

आज हालत ये है कि अगर आप किसी से बात करना चाहें,
तो उसकी नज़र आप पर नहीं, मोबाइल स्क्रीन पर रहती है।
कहीं न कहीं अब यह आदत बन चुकी है —
जैसे दो मिनट बिना मोबाइल के रहे तो कुछ खो जाएगा।

पहले लोग घंटों आपके पास बैठते थे,
अब बहाना है — "रुको, एक कॉल आया है।"

पूरा दिन बेमतलब की रील्स और शॉर्ट्स देखते हुए बीतता है —
खान-पान, झूठा प्यार, दिखावटी सलाह,
और फिर शाम को धर्म-कर्म के कार्यक्रम में शामिल होकर,
रात को फिर वही मोबाइल और फिर नींद...

यही हैं आज के त्योहार...

वो दिन और आज की शादियाँ: एक नया नज़रिया

वो दिन और आज की शादियाँ: एक नया नज़रिया

याद हैं वो दिन,

जब शादियों में एक अलग ही रौनक देखने को मिलती थी।
हर गली, हर आंगन में जैसे खुशबू ही खुशबू फैली रहती थी।

जब घर में लाइट्स सजाने वाला आता था,
तो उसे सजावट करते देख ही दिल खिल उठता था।
जब कुर्सियाँ आती थीं,
तो उन्हें सही जगह जमाने में भी सब बढ़-चढ़कर मदद करते थे —
बिना कहे, बिना थके।

फिर बच्चों का अपना खेल शुरू हो जाता —
कुर्सी पर कुर्सी चढ़ाकर ऊंचे टावर बनाने का।
चारों ओर गेंदे के फूलों की भीनी-भीनी खुशबू,
और हल्दी की महक —
जैसे शादी की पहचान बन जाती थी।

आज भी ये सब होता है,
पर न वो एहसास बचा है,
न वो ठहराव।
ना जाने कब रस्में पूरी हो जाती हैं,
ना जाने कब महफ़िलें खत्म हो जाती हैं।

लोग आज डिजिटल दुनिया को दोषी ठहराते हैं,
पर सच कहूँ —
वो खुशबू कहीं और नहीं,
हमारी रूह से ही गायब हो गई है।

याद हैं वो दिन,
जब शादी के बाद बचा हुआ खाना भी
खुशियों का हिस्सा लगता था।
जब हर शादी का संगीत
उस जोड़े की पहचान बन जाता था।

पहले शादियों में लोग अलग-अलग ग्रुप बना लेते थे —
कहीं अंताक्षरी की धुनें गूंजतीं,
तो कहीं गुझिया और गुलगुले बनते।
हल्दी का रंग-भरा खेल,
आलू-टमाटर की मजेदार लड़ाइयाँ,
सब मिलकर एक यादगार किस्सा बनाते थे।

आज हालात ये हैं —
हर किसी को एक अलग कमरा चाहिए,
जहाँ वो चुपचाप मोबाइल पर
झूठी-सच्ची खबरें देख सके,
रील्स स्क्रॉल कर सके,
और फिर थककर सो सके।

शादी की रस्में कब पूरी हो जाती हैं,
पता ही नहीं चलता।
पहले लोग हलवाई को खाना बनाते देख
खुश हो जाते थे,
अब मोबाइल में डूबे लोग
उदास से चेहरों के साथ बैठे रहते हैं —
जैसे शादी का सारा खर्चा वही उठा रहे हों।

कोई भी रील्स में जो विचार सुनता है,
उसे अपनाता नहीं,
बस सिर हिलाकर कहता है —
"हाँ, सही है।"

उनके लिए नकली दुनिया ही सच्ची बन चुकी है।
पूरा दिन रील्स और शॉर्ट्स में गँवा देना —
नफ़रत, बहस, नौटंकी देखना —
यही दिनचर्या बन गई है।

शाम होते ही सब तैयार होकर कार्यक्रम में शामिल होते हैं,
जल्दी-जल्दी खाना खाते हैं,
फिर अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं,
और फिर कुछ और वैसी ही बेकार वीडियो देखकर सो जाते हैं।

यही हैं आजकल की शादियाँ...
...जहाँ वो रौनक और वो खुशबू कहीं दिखाई नहीं पड़ती,
दिखते हैं तो सिर्फ मोबाइल स्क्रीन पर स्क्रॉल करते लोग।