बचपन की यादें: वो मस्ती भरे दिन
Nostalgiaवो बचपन के दिन भी क्या खूब थे —
ना दोस्ती का मतलब पता था, ना मतलब की दोस्ती थी।
मेरा बचपन मेरी ज़िंदगी का सबसे प्यारा हिस्सा था। जब भी मैं उन दिनों को याद करता हूँ, आँखों में नमी और चेहरे पर मुस्कान आ जाती है।
हमारे मोहल्ले में ढेर सारे बच्चे थे —
अलग-अलग उम्र के, मगर दिल से सब एक जैसे।
कभी क्रिकेट, कभी छुपन-छुपाई,
कभी कबड्डी, तो कभी चोर-सिपाही।
हर दिन नया खेल, हर दिन नई मस्ती।
खेलते-खेलते कभी अम्मा की आवाज़ सुनाई देती —
"हे बेर बिरचुन बेर..."
हम दौड़ते हुए पूछते, "अम्मा, बेर पत्ते में दोगी न?"
अगर अम्मा कहतीं, "हाँ बेटा,"
तो हम खुशी से लेकर आते।
पर अगर कहतीं, "नहीं बेटा, कागज़ में देंगे,"
तो हम नाक-भौं सिकोड़कर बोलते,
"फिर नहीं चाहिए!"
क्योंकि उस ताज़े हरे पत्ते की सौंधी खुशबू में बेर खाने का मज़ा ही कुछ और था, जो कागज़ में कहाँ।
थोड़ी देर बाद गली में गूंजती दूसरी आवाज़ —
"गुलाब लच्छी, खाने में अच्छी..."
और बच्चे मस्ती में चिल्लाते —
"गुलाब लच्छी, काँटे में मच्छी!"
...फिर खिलखिलाते हुए भाग जाते।
पानी टिक्की वाला ठेला, कुल्फी की टन-टन घंटी, और आइसक्रीम वाले की भोंपू —
मोहल्ले की खुशी के छोटे-छोटे ये पल हर दिन रंग भर देते थे।
शाम होते ही बच्चे इकट्ठा होकर भूतों की कहानियाँ सुनते थे।
कोई डरता, कोई हँसता, पर सब साथ में बैठकर एक-दूसरे की आँखों में डर ढूँढते थे।
वो अनुभव आज भी दिल को सुकून देता है।
घर लौटते ही गरमा-गरम खाना खाते हुए ‘शाकालाका बूम बूम’ देखना —
उसका भी एक अलग ही मज़ा था।
हमारे मोहल्ले में दिन भर मस्ती होती थी।
ना मोबाइल, ना इंटरनेट, बस एक पुरानी साइकिल, एक गेंद और जिगरी दोस्त।
शाम होते ही सब मैदान की ओर दौड़ लगाते।
चप्पल पहनकर खेलते, कभी पैर में काँटा चुभ जाए तो भी परवाह नहीं।
थोड़ा लड़खड़ाते, फिर हँसते हुए खेल में जुट जाते।
वो दिन जब चुपचाप सुधीर जी की दुकान पहुंच जाते थे, बिना बताए घर से निकलना और वीडियो गेम्स में खो जाना —
'कॉन्ट्रा', 'मारियो', 'रोड फाइटर' — नाम सुनते ही दिल मुस्कुरा उठता है!
एक बार दो दोस्त थे, जेब में सिर्फ एक रुपया। सुधीर जी दुकान पर नहीं थे, उनकी माँ मिलीं।
उन्होंने हमें अंदर बुलाया, पंखा चलाया और बिठा लिया।
हम थोड़े शर्मिंदा थे — क्योंकि जेब में सिर्फ एक रुपया था, पर शायद उन्हें लगा कि हम सुधीर जी के बड़े ग्राहक हैं। 😁
थोड़ी देर बाद जब सुधीर जी आए, तो जैसे चैन की साँस मिली।
हमने "अलादीन" शुरू किया — लेकिन एक खाई थी जो पार ही नहीं हो रही थी।
सुधीर जी ने समझाया कि कैसे पार होगी, पर तब तक टाइम खत्म हो गया।
उन्होंने मुस्कुराकर कहा —
"चलो, दस मिनट और खेल लो।"
हमने बिना देर किए "अलादीन" हटा दिया, और फिर "सुपर मारियो" लगा लिया।
ये गेम्स बस खेलने के लिए नहीं थे, उनकी धुनें गुनगुनाना और हर कैरेक्टर में मज़ाक ढूँढना भी मज़ेदार था।
जब खुद का वीडियो गेम आया, लगा जैसे दुनिया हमारी हो गई।
नई कैसेट्स चाहिए हों या रिमोट खराब हो जाए —
कभी लक्ष्मीचंद मार्केट, कभी गुरु नानक मार्केट जाना, ये भी एक छोटा-सा एडवेंचर था!
कॉमिक्स का भी अपना नशा था —
चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी — किराए पर लेकर पढ़ते, समय से पहले लौटा देते ताकि अगली बार फिर मिल जाए।
उन रंग-बिरंगे पन्नों और खुशबू की बात ही कुछ और थी।
याद है, बड़े भाई ने मम्मी से पैसे लेकर ढेर सारी कॉमिक्स खरीदने की योजना बनाई थी।
बड़े आत्मविश्वास से बोले —
“किराए की कॉमिक्स का खर्चा बच जाएगा, और बाकी लोग हमसे कॉमिक्स लेकर पढ़ेंगे...”
पर वे सारी कॉमिक्स बस हमारे मनोरंजन का हिस्सा बनकर रह गईं।
और यही “फ्री सेवा” वाला दौर सबसे सुनहरा था।
जो भी दोस्त आता, अपनी पसंदीदा कॉमिक्स उठाकर पढ़ने लगता। 🤗
कॉमिक्स में तरह-तरह की कहानियाँ होती थीं — कुछ रहस्य और सस्पेंस से भरी, कुछ ज़बरदस्त लड़ाई के साथ। मगर मुझे तो चाचा चौधरी, पिंकी, बिल्लू ही सबसे प्यारे लगते थे।
हम कहानियाँ नहीं पढ़ते थे, उनमें जीते थे।
जब छोटे थे ज़ी हॉरर शो देखा करते थे।
हर एपिसोड के बाद दिल डरता था,
पर मोहल्ले में उसी डर की चर्चा सबसे मज़ेदार लगती थी।
एक रात हमारे ग्रुप के एक लड़के ने बताया —
"एक बार मेरे पापा ने मुझे बताया था कि अपने घर से कुछ ही दूरी पर जो धर्मशाला है,
वहाँ एक भट्ठी रहती है जो चुड़ैल से भी ज़्यादा खतरनाक है!"
फिर अगले दिन दूसरा दोस्त बोला —
"मेरी मम्मी ने बताया कि उस धर्मशाला से थोड़ी ही दूर जो हवेली है,
वहाँ भी प्रेतात्माओं का बसेरा है!"
कुछ दिन बाद, ग्रुप का एक लड़का बेहद गंभीर आवाज़ में बोला —
"अगर ये दुआ पढ़ लो और तीन बार ताली बजाओ, तो कोई भी भूत, चुड़ैल या आत्मा वहीं से भाग जाएगी जहाँ तक ताली की आवाज़ पहुंचेगी!"
एक दिन गर्मियों की छुट्टियां चल रही थीं।
हमारी सभी बुआओं के बच्चे छुट्टियां बिताने आए हुए थे।
तो मेरे बड़े भाई ने योजना बनाई —
चलो उस धर्मशाला और हवेली को देखने चलते हैं।
हम सभी वहां जाकर वो दुआ पढ़ेंगे, तीन बार ताली बजाएंगे और फिर वहां से भाग जाएंगे।
हम तेज़ धूप में वहां पहुँचे।
धर्मशाला तो डरावनी नहीं थी, पर हवेली ज़रूर भूतिया लग रही थी —
जर्जर दीवारें, बाहर एक सूखा कुआँ, और चारों ओर फैली एक अजीब सी धुँधली छाया।
हम ऐसी जगह खड़े हो गए, जहाँ से हवेली और धर्मशाला दोनों एक साथ दिखती थीं।
फिर हमने एक साथ वह दुआ पढ़ी, तीन बार ताली बजाई,
और वहां से ऐसे भागे, जैसे सच में कोई प्रेतात्मा हमारे पीछे पड़ गई हो!
यही तो था वो बचपन, जहाँ बेवजह के काम भी पूरी ज़िम्मेदारी से किए जाते थे। 😄
ज़ी हॉरर शो में एक एपिसोड था — एक हीरे की अंगूठी वाला।
उसे देखकर हमारे चाचा के एक लड़के को हीरों से ऐसा लगाव हुआ,
कि वह नक़ली हीरों और चमकदार नगों को अपने पास सहेजकर रखने लगा।
वो उन्हें प्लास्टिक के ट्रांसपेरेंट डिब्बों में रखता,
जिनमें नीचे रुई बिछी होती थी — बिल्कुल जौहरियों की तरह।
वो उन नगों को रोशनी में घुमाकर ऐसे दिखाता,
मानो कोई बेशकीमती खज़ाना हो।
मज़ेदार बात ये थी कि उसकी शक्ल भी धीरे-धीरे उस हॉरर शो के एक किरदार से मिलने लगी थी —
शायद वह उस किरदार में कुछ ज़्यादा ही डूब गया था।
जब भी उसके पास कोई नया 'हीरा' आता, हमें देखने के लिए बाकायदा अपॉइंटमेंट लेना पड़ता था!
वो बड़ी-बड़ी आंखों में चमक लिए हीरों को बड़े गर्व से दिखाता था।
याद है मुझे अपने बचपन की वो मस्तियाँ, जब हम सब कीड़े-मकौड़ों से खेला करते थे।
चाहे वो भौंरे हों, तितलियाँ हों या अन्य कोई कीट, सभी मस्तियों का हिस्सा होते थे।
अच्छी दिखने वाली चीज़ें मिलना बहुत मुश्किल होता है, और यह बात प्रकृति ने मुझे भौंरों के ज़रिए सिखाई थी।
जब हम बच्चे लाल रंग का भौंरा पकड़ते थे, तो वह बड़ी मुश्किल से पकड़ा जाता था।
वह सच में बेहद खूबसूरत और चालाक होता था।
और जिस भौंरे को हमने उसके रंग की वजह से ‘मिलिट्री’ नाम दिया था,
वह लाल भौंरे की तुलना में काफी आसानी से पकड़ लिया जाता था।
जब हम बच्चे आपस में भौंरों का सौदा करते थे, तो दो मिलिट्री भौंरों के बदले एक लाल भौंरा मिलता था।
और वो दिन भी क्या खूब होते थे जब मोहल्ले में कहीं पानी भर जाता था,
और हम सभी के कदम अपने आप उसी ओर मुड़ जाते थे…
तेज़ बारिश में नहाते, मस्ती करते,
और कभी-कभी तो "ब्राज़ील ला ला ला ला..." भी गुनगुनाते थे।
वो दिन भी याद हैं जब बचपन में हम घर के सामने लगे पेड़ और झाड़ियों के आस-पास घूमते रहते थे।
एक बार हम खेलते-खेलते कुछ ज़्यादा ही अंदर चले गए —
तब हमें उन पेड़ों के बीच एक गुफा जैसी जगह दिखी।
वो कोई पहाड़ी गुफा नहीं थी,
बल्कि पेड़-पौधों और झाड़ियों को काट-छाँट कर बनाई गई एक छुपी हुई जगह थी।
वाह! क्या अद्भुत नज़ारा था वो...
थोड़ी देर बाद वहाँ हमें एक ताश के पत्तों की गड्डी मिली,
और तभी हमें समझ आया —
ये जगह शायद जुआ खेलने वालों ने बनाई थी!
खेल-कूद भी क्या खूब किस्म-किस्म के थे, जिनमें कुछ खेल ऐसे थे जो जेब-खर्च से कोसों दूर थे।
गिट्टियों को एक के ऊपर एक सजाना, फिर बॉल मारकर उन्हें गिरा देना और दौड़ जाना…
फिर ग्रुप का वही खिलाड़ी बॉल की चोट से बचते हुए उन्हें दोबारा उसी क्रम में लगाने की कोशिश करता।
और कभी-कभी तो खेल का असली मक़सद ही बस एक-दूसरे को बॉल की चोट देना होता था —
या यूँ कहें कि बॉल से एक बढ़िया 'चैका' लगाना ही सबसे बड़ा मज़ा था! 😅
याद है मुझे वो एक लड़का, जो हर दिन मोहल्ले में नए-नए बॉलर्स की स्टाइल में बॉलिंग करके हमें दिखाता था।
कभी जोश में कहता — ‘देखो, आज ज़हीर खान की तरह बॉल डालूंगा!’
तो कभी कहता — ‘अब देखो ब्रेट ली का स्टाइल!’
मज़ेदार बात ये थी कि हर बार उसकी बॉलिंग एक ही जैसी होती थी —
न ज़हीर की स्विंग, न ब्रेट ली की स्पीड, और तो और स्टाइल भी कहीं से मेल नहीं खाता था।
लेकिन उसे पूरा यक़ीन होता था कि उसने हूबहू वैसे ही फेंका है।
हम सब अपनी हँसी दबाकर एक-दूसरे की ओर मुस्कुरा देते।
उसकी वो मासूमियत, वो जोश — आज भी चेहरे पर मुस्कान ला देता है।
मोहल्ले में हमारे ये भी रिकॉर्ड दर्ज रहते थे कि सबसे लंबा स्ट्रेट सिक्स किसने मारा है,
सबसे लंबा लेग साइड सिक्स किसने मारा है,
और सबसे लंबा ऑफ साइड सिक्स किसने मारा है।
एक बार तेज़ हवा — कहें आँधी — चल रही थी, और हम सब मोहल्ले की सड़क पर क्रिकेट खेल रहे थे।
तभी हमारे ग्रुप के एक लड़के ने ऑफ साइड सिक्स मारा।
बॉल ऊपर ही थी कि अचानक एक ज़ोरदार झोंका आया,
और वो हल्की प्लास्टिक की बॉल उड़ती हुई बहुत दूर — किसी के टीन के शेड से जा टकराई।
उस लड़के का सेलिब्रेशन देखने लायक था।
बल्ला हवा में उठाया और पूरे जोश से दहाड़ते हुए बोला —
"ऑफ साइड का सबसे लंबा छक्का!"
और सच कहें तो — वो रिकॉर्ड फिर कोई नहीं तोड़ पाया।
कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि हम सब मिलकर एक छोटा सा चूल्हा बनाते,
और उसमें पुलाव पकाते।
कोई अपने घर से चावल लाता, कोई तेल, कोई मसाले,
कोई प्याज़, कोई मिर्च — और कोई सब्ज़ियाँ...
और पता नहीं क्यों, उस पुलाव का स्वाद इतना ज़बरदस्त होता था कि दिल करता था खाते ही जाओ।
पुलाव की बात से याद आया —
हमारे ग्रुप में एक लड़का था, जो अक्सर मेरे घर आकर मुझे क्रिकेट खेलने के लिए बुला लेता था।
फिर हम दोनों ही निकल जाते थे, तीसरे का इंतज़ार भी नहीं करते थे — ये सोचे बिना कि कीपिंग कौन करेगा!
एक बार वो मुझे बुलाने आया, और उस दिन घर में यख़नी पुलाव बन रहा था।
मैं बिना कुछ खाए उसके साथ बाहर निकल गया, और थोड़ी देर में बाकी दोस्त भी आ गए।
पता नहीं क्यों, उस दिन मैं एकदम अलग जोश में था —
सिक्स पर सिक्स मारे जा रहा था!
तभी वो लड़का हँसते हुए बोला —
"शब्बीर, बस कर यार! वो तो मुझे मालूम है कि तू पुलाव खा के आया है..."
मैं हँसा तो वो बोला —
"अलग ही ख़ुशबू आ रही थी सौंधी-सौंधी!"
क्रिकेट में तो हर कोई चौका और छक्का जानता है, लेकिन हमारे मोहल्ले में एक और था — ‘दस्सा’।
जिसका मतलब था — जो खिलाड़ी बॉल को रेलवे ट्रैक तक पहुँचाएगा, उसे दस रन की बढ़त मिलती थी।
और मज़े की बात ये थी कि कभी-कभी इनाम में मिलता था च्युइंगम के साथ फ्री में दिया जाने वाला प्लास्टिक का छोटा डायनासोर!
हमारे घर से कुछ दूरी पर हमारे ग्रुप का एक लड़का और था —
जो बिल्कुल डॉ. अब्दुल कलाम साहब जैसी माँग काढ़ता था,
पर उसके माथे पर लटकने वाले दो छल्ले कुछ ज़्यादा ही घुमावदार थे।
मुझे नहीं पता था कि मेरे चाचा को भी उसकी हेयरस्टाइल दिलचस्प लगती थी।
वो भी उसके बालों पर नज़र रखते और मन ही मन मुस्कुराते रहते।
एक दिन जब वो खेलने नहीं आया, तब चाचा बोले—
“क्यों, वो नहीं आया जो बड़े क़रीने से बीच की माँग काढ़ता है, डॉ. अब्दुल कलाम जैसी…”
जब वो किसी दिन आया, तो चाचा ने उसे देखते हुए कहा—
“हाँ, तू है न आज... तू है न...”
फिर अचानक उल्टी दिशा में मुड़कर मंद-मंद मुस्कुराने लगे।
हमारे चाचा उस समय बड़े फ़नी टाइप के थे।
उन्हें अगर कोई ग्रीटिंग्स भेजे, तो बहुत अच्छा लगता था।
एक बार पोस्टमैन आया, तो उन्होंने पूछा —
"क्यों, हमारा आया है क्या कुछ?"
पोस्टमैन बोला — "नहीं।"
तो चाचा झुँझलाकर बोले — "अरे, दे जाया करो यार!"
अब इसमें हँसी की बात नहीं कि जब आया ही नहीं तो वो दे कैसे जाएगा?
उनके ऐसे कारनामे एक नहीं, कई थे।
हमारे ग्रुप का एक छोटा लड़का, जो अक्सर एक गीत गुनगुनाया करता था — शायद उसका फेवरिट था।
एक दिन चाचा ने उसे रोका और बोले —
"बेटा, ऐसे नहीं, ऐसे गाओ..."
और फिर उस गाने में से एक शब्द हटाकर उसके पापा का नाम जोड़ दिया!
बचपन की कच्ची अक़्ल तो थी ही — लड़का वही गाना अपने घर पर गुनगुनाने लगा।
उसके चाचा ने सुन लिया, डाँट लगाई और पूछा —
"ये किसने सिखाया?"
तो लड़के ने सीधा नाम ले लिया...
फिर उसके चाचा हमारे चाचा से बोले —
"आप बड़े हैं, सोचते हैं कि आप अच्छी बातें सिखाओगे... पर जब आप ही ऐसा करोगे, तो हम किस पर विश्वास करें?"
हमारे चाचा का वही जवाब —
"अरे, मैंने नहीं…"
उन्हें अपने दाँतों और मसूड़ों की सेहत का बड़ा ख़्याल रहता था।
अक्सर क्लोज़अप टूथपेस्ट का ऐड गुनगुनाते रहते —
"क्या आप क्लोज़अप करते हैं... दुनिया से नहीं डरते हैं..."
मैं अक्सर दादा की परचून की दुकान पर बैठता था।
कभी-कभी वो मोहल्ले की एक उम्रदराज़ औरत का नाम लेकर कहते —
"शब्बीर, दादा की दुकान से ठुठरे-ठुठरे चने लेकर आ,
मैं बताऊँगा वो औरत चने कैसे खाती है!
जब मैं चने लाता, तो वह अलग ही फ़नी चेहरा बनाकर
मुँह चलाते हुए चने चबाकर दिखाते।
और हम सब हँसी रोकते-रोकते लोटपोट हो जाते।
हमारे घर के पास एक आदमी था —
जिसे ऊँची आवाज़ में गाना गाने का बड़ा शौक था।
वो गाता —
“मत प्यार करो परदेसी से…”
या
“प्यार कभी कम नहीं करना, कोई सितम कर देना…”
चाचा उन्हीं के अंदाज़ में गाकर दिखाते।
और ये सब सुनना एक कॉमेडी शो जैसा लगता था।
एक बार हल्की बारिश हुई थी —
ज़मीन भी गीली नहीं हुई थी —
पर चाचा को बरसात वाली फीलिंग आ गई थी।
उन्होंने कहा:
“अब तो ताज़े-ताज़े जामुन मिल जाएँ... नमक डालकर... हिलाकर नाई...”
एक बार उन्होंने मुझे 10 रुपये का नोट थमाया और कहा:
“कुछ बढ़िया-बढ़िया चीज़ें लेकर आ खाने को...”
मैं गया और चूरन, सुपारी वग़ैरह ले आया, और आठ रुपये लौटा दिए।
उन्होंने पैकेट देखकर कहा:
“ये क्या ले आया, कुछ अलग ही लाता... हटके नाई!”
याद है वो दिन, एक शाम —
मैं, मेरे सभी भाई और बुआ के बच्चे,
पटरियों के किनारे-किनारे चलते हुए
बड़े पुल की सैर पर निकल पड़े थे।
पटरियों के किनारे-किनारे हम सब मस्ती करते हुए चल रहे थे। चारों ओर हरियाली थी, हवा ठंडी थी और दिलों में बेफिक्री। सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था।
हम आगे बढ़ते ही जा रहे थे कि सामने से चाचा जी आते दिखे।
उन्हें देखते ही सबकी जान हलक में आ गई। कोई सोच भी नहीं सकता था कि वहां चाचा जी मिल जाएंगे!
बुआ का एक लड़का इतना डर गया कि झाड़ियों में छिपने की कोशिश करने लगा,
पर उसका वजन थोड़ा ज़्यादा था।
जैसे ही वो नीचे उतरा,
ढलान ने उसे पकड़ लिया —
और वो फिसलता चला गया जैसे कोई स्लाइड हो —
वो तब तक रुका ही नहीं जब तक ढलान खत्म न हो गई। 🤣
हम भी जैसे-तैसे खुद को सँभालकर झाड़ियों में छिप गए।
पर...
घर पहुँचते ही पता चला कि चाचा जी ने सब देख लिया था!
यही तो था हमारा बचपन —
जहाँ शामें भी होती थीं,
अब तो दिन के बाद सीधे रात हो जाती है।