वो दिन और आज की शादियाँ: एक नया नज़रिया
Emotionsयाद हैं वो दिन,
जब शादियों में एक अलग ही रौनक देखने को मिलती थी।
हर गली, हर आंगन में जैसे खुशबू ही खुशबू फैली रहती थी।
जब घर में लाइट्स सजाने वाला आता था,
तो उसे सजावट करते देख ही दिल खिल उठता था।
जब कुर्सियाँ आती थीं,
तो उन्हें सही जगह जमाने में भी सब बढ़-चढ़कर मदद करते थे —
बिना कहे, बिना थके।
फिर बच्चों का अपना खेल शुरू हो जाता —
कुर्सी पर कुर्सी चढ़ाकर ऊंचे टावर बनाने का।
चारों ओर गेंदे के फूलों की भीनी-भीनी खुशबू,
और हल्दी की महक —
जैसे शादी की पहचान बन जाती थी।
आज भी ये सब होता है,
पर न वो एहसास बचा है,
न वो ठहराव।
ना जाने कब रस्में पूरी हो जाती हैं,
ना जाने कब महफ़िलें खत्म हो जाती हैं।
लोग आज डिजिटल दुनिया को दोषी ठहराते हैं,
पर सच कहूँ —
वो खुशबू कहीं और नहीं,
हमारी रूह से ही गायब हो गई है।
याद हैं वो दिन,
जब शादी के बाद बचा हुआ खाना भी
खुशियों का हिस्सा लगता था।
जब हर शादी का संगीत
उस जोड़े की पहचान बन जाता था।
पहले शादियों में लोग अलग-अलग ग्रुप बना लेते थे —
कहीं अंताक्षरी की धुनें गूंजतीं,
तो कहीं गुझिया और गुलगुले बनते।
हल्दी का रंग-भरा खेल,
आलू-टमाटर की मजेदार लड़ाइयाँ,
सब मिलकर एक यादगार किस्सा बनाते थे।
आज हालात ये हैं —
हर किसी को एक अलग कमरा चाहिए,
जहाँ वो चुपचाप मोबाइल पर
झूठी-सच्ची खबरें देख सके,
रील्स स्क्रॉल कर सके,
और फिर थककर सो सके।
शादी की रस्में कब पूरी हो जाती हैं,
पता ही नहीं चलता।
पहले लोग हलवाई को खाना बनाते देख
खुश हो जाते थे,
अब मोबाइल में डूबे लोग
उदास से चेहरों के साथ बैठे रहते हैं —
जैसे शादी का सारा खर्चा वही उठा रहे हों।
कोई भी रील्स में जो विचार सुनता है,
उसे अपनाता नहीं,
बस सिर हिलाकर कहता है —
"हाँ, सही है।"
उनके लिए नकली दुनिया ही सच्ची बन चुकी है।
पूरा दिन रील्स और शॉर्ट्स में गँवा देना —
नफ़रत, बहस, नौटंकी देखना —
यही दिनचर्या बन गई है।
शाम होते ही सब तैयार होकर कार्यक्रम में शामिल होते हैं,
जल्दी-जल्दी खाना खाते हैं,
फिर अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं,
और फिर कुछ और वैसी ही बेकार वीडियो देखकर सो जाते हैं।
यही हैं आजकल की शादियाँ...
...जहाँ वो रौनक और वो खुशबू कहीं दिखाई नहीं पड़ती,
दिखते हैं तो सिर्फ मोबाइल स्क्रीन पर स्क्रॉल करते लोग।