माधवेंद्र भवन की एक रात

माधवेंद्र भवन की एक रात

जयपुर, रॉयल्टी की राजधानी... महलों और किलों की धरती। उन्हीं महलों में से एक है माधवेंद्र भवन — एक अद्भुत रचना जो नाहरगढ़ किले के भीतर स्थित है।

इस महल को राजा सवाई माधो सिंह ने अपनी नौ रानियों के लिए बनवाया था। महल का डिज़ाइन कुछ इस तरह से तैयार किया गया था कि गलियों का जाल और कमरे इतने पेचीदा तरीके से जुड़े थे कि एक बार भीतर प्रवेश कर लेने के बाद बाहर निकलना आसान नहीं होता था। यह वास्तव में एक भूलभुलैया थी, जिसमें कोई भी रास्ता सीधे तौर पर नज़र नहीं आता था।

इन सब के बीच में एक मुख्य गलियारा था — जो सभी कमरों को जोड़ता था, लेकिन वह रास्ता भी सीधा नहीं दिखता था। यह महल न केवल अपनी भव्यता के लिए बल्कि इतिहास और रहस्य के लिए भी जाना जाता है।

कहानी की शुरुआत

यह बात उस समय की है जब पापा-मम्मी, चाचा-चाची जयपुर घूमने आए थे। उनके साथ दादा-दादी और एक पड़ोसी परिवार भी था।

चार दिन के इस ट्रिप में वे स्टेशन के पास की सराय में ठहरे थे — वही खाना बनाना, वही सोना—हर ज़रूरी आवश्यकता का वहाँ पूरा बंदोबस्त था। वो दिन बहुत सुहाने थे, क्योंकि तब यात्रा से जुड़े कोई विशेष नियम या पाबंदियाँ नहीं थीं। दिन भर घूमना, खाना-पीना, मस्ती — सब कुछ बेहद सहजता से चलता रहा।

और आज उन सबका आख़िरी दिन था जयपुर में। कल उन्हें वापस अपने शहर डबरा लौटना था।

जयपुर की हवाओं में उस दिन एक अलग ही सिहरन थी। गुलाबी शहर की धड़कनों के बीच बसा था एक किला — नाहरगढ़। और उसके गर्भ में छिपा था एक अद्भुत, रहस्यमय महल — माधवेंद्र भवन।

उसी दिन, जब बाकी लोग कहीं और घूमने निकले थे, पापा अपने शौक की डोर थामे अकेले उस राजसी रहस्य की सैर पर निकल पड़े। उन्हें राजा–महाराजाओं के किले, हवेलियाँ और पुरानी दीवारों में दबी कहानियाँ बेहद आकर्षित करती थीं — और माधवेंद्र भवन उनके लिए एक खजाना था।

पापा ने किसी से ज़्यादा बात नहीं की। बस इतना कहा, “मैं थोड़ा महल देख आऊँ।” कोई नहीं जानता था कि यह ‘थोड़ा’ देखना कैसे एक डरावनी रात में बदल जाएगा।

महल का प्रवेश

महल का मुख्य प्रवेश द्वार बेहद भारी था — जैसे सदियों पुरानी साँसें उसमें अब भी अटकी हों। जब पापा ने भीतर कदम रखा, तो चारों ओर गूंजती खामोशी ने उनका स्वागत किया।

ऊँची दीवारें, पत्थरों में छिपी कहानियाँ, और वो संकरी गलियाँ — जिनमें जाने कितनों ने रास्ता खोया होगा। पापा हर मोड़ को ध्यान से देख रहे थे। लेकिन वे जानते थे कि यह महल साधारण नहीं है। इसीलिए वे अपने पीछे कुछ निशान छोड़ते जा रहे थे।

भूलभुलैया की शुरुआत

महल के भीतर कई रास्ते और अनेक दरवाज़े थे — लेकिन बाहर निकलने का रास्ता सिर्फ एक ही था। बाकी सारे रास्ते सिर्फ भ्रम पैदा करते थे।

पापा धीरे–धीरे महल के ऊपरी हिस्से तक पहुँच गए। उन्हें पता था कि अब इस किले और इसमें बसे महल को छोड़ने का समय आ गया है। वहाँ कुछ लड़के फोटो खींच रहे थे, तो पापा ने सोचा — "ये भी तो रुके हुए हैं", इसलिए वे भी वहीं रुक गए। उन्होंने तय किया कि जैसे ही वे लड़के नीचे उतरेंगे, वे भी उनके पीछे-पीछे चल देंगे।

पर यहीं से कहानी ने मोड़ ले लिया...

पापा महल की बनावट में इतने खो गए कि उन्हें यह भी पता नहीं चला कि लड़के कब वहाँ से चले गए। जब उन्हें इसका एहसास हुआ, तो वे दौड़ते हुए नीचे भागे, ताकि देख सकें कि वे किस रास्ते से निकल रहे थे। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

कुछ क्षणों के लिए उन्हें उन लड़कों के कदमों की आहट और एक झलक महसूस हुई — और फिर चारों ओर सन्नाटा छा गया।

वे भूल चुके थे कि किस दरवाज़े से नीचे उतरना था। पापा ने पहला द्वार चुना — गलियारा लंबा था, और साया-सा सन्नाटा उसमें पसरा हुआ था। उन्होंने पहले छोड़े गए निशान ढूँढ़ने की कोशिश की, लेकिन हर मोड़ उन्हें एक जैसा ही लगने लगा। धीरे–धीरे उन्हें महसूस हुआ कि वे फिर उसी जगह लौट आए हैं।

फिर उन्होंने दूसरा दरवाज़ा चुना, फिर तीसरा... लेकिन हर बार वही नतीजा। अब उन्होंने हर मोड़, हर दरवाज़े पर निशान बनाना शुरू कर दिया।

लेकिन जैसे ही वे किसी गलियारे में दोबारा जाते, उन्हें उनके ही बनाए हुए पुराने निशान दिखते। यानी वे फिर से उसी जगह लौट आए थे।

हर रास्ता उन्हें उसी स्थान पर ले आता था — जैसे कोई अदृश्य शक्ति उन्हें बाहर निकलने से रोक रही हो।

पापा ने बताया — "नाहरगढ़ किले के नियमों के अनुसार, मुझे वहाँ से शाम होने से पहले निकल जाना था। मैं कई दरवाज़ों से होकर गुज़रा। हर बार लगता कि अब शायद बाहर निकल जाऊँगा, लेकिन हर बार मैं वहीं लौट आता था।"

हिम्मत की आख़िरी डोर

उनकी साँसें तेज हो चुकी थीं, कपड़े पसीने से तरबतर हो गए थे, और दिल डर से कांप रहा था। लेकिन वे हार मानने वालों में से नहीं थे।

उन्होंने बार–बार नए रास्ते आज़माए, हर दिशा में प्रयास किया — लेकिन महल जैसे उन्हें वापस अपनी गिरफ्त में खींच लाता।

उन्होंने बताया — "मैं हर जगह कुछ निशान छोड़ रहा था। 12 कमरों के इर्द-गिर्द फैले गलियारों को खंगालना तो दूर, मैं तो कुछ ही गलियारों में बुरी तरह उलझ गया था।"

शाम का सूरज ढल चुका था और महल अब अंधेरे में डूबने लगा था। झींगुरों की आवाज़ें गूंजने लगीं और हवा में एक अजीब-सी नमी भर गई। चमगादड़ उड़ते हुए दिखाई देने लगे — उनके पंखों की सरसराहट दिल की धड़कनों से टकरा रही थी।

पापा के पास कोई टॉर्च नहीं थी — बस दिल में एक उम्मीद थी। उन्होंने दीवारों को छूकर चलना शुरू किया, हर मोड़ और उभार को महसूस करते हुए रास्ता टटोलने लगे।

घंटों बीत गए थे। अब उन्हें यकीन होने लगा था कि शायद आज की रात इसी भूलभुलैया में गुज़रेगी।

उन्होंने बताया — "एक पल तो ऐसा भी आया जब मैं रो पड़ा। उस समय मेरी उम्र सिर्फ 21 या 22 साल रही होगी। मैं वहाँ घंटों से भटक रहा था। मुझे यह चिंता सता रही थी कि समय कुछ ज़्यादा हो गया है और परिवार के सदस्य बेसब्री से मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे।"

रात की गहराई और उम्मीद की रौशनी

रात का काफ़ी समय बीत चुका था। पापा अब पूरी तरह थक चुके थे। डर और थकान उन्हें हार मानने पर मजबूर कर रही थी।

तभी दूर से एक आवाज़ आई — “कोई है?” पापा चौंक उठे। यह किसी आदमी की आवाज़ थी। उन्होंने तुरंत जवाब दिया — “चलो… चलो…”

यह उनका पुराना तरीका था किसी को पुकारने का।

दो सुरक्षाकर्मी टॉर्च के साथ गलियारों में गश्त लगा रहे थे। एक ने आवाज़ सुनी और कहा, “उधर कोई है!” जब टॉर्च की रोशनी पापा पर पड़ी, तो जैसे अंधेरे में साँसें वापस लौट आईं।

दोनों गार्ड्स उनके पास आए और उन्हें उस एकमात्र द्वार से बाहर ले गए, जो सही मायनों में बाहर की ओर खुलता था।

और इस तरह...

वो महल, जो राजा की नौ रानियों की आरामगाह था, एक रात के लिए एक आम इंसान के लिए एक डरावना पिंजरा बन गया।

एक रात जब घर में लाइट नहीं थी, तो हमेशा की तरह हम सभी घर के बाहर बैठे हुए थे। उसी वक्त पापा ने वो पुराना किस्सा सुनाया। उनकी बातें सुनकर हम सब रोमांच से भर गए।

लेकिन असली मोड़ तब आया जब चाचा ने धीमे स्वर में कहा —
“मुझे लगता है… शायद वो गार्ड्स मेरी वजह से आए थे।”

हम सब चौंक गए।
पापा ने पूछा, “तुम्हारी वजह से?”

चाचा बोले — “जब तू देर तक नहीं लौटा, मुझे यकीन था कि तू उसी महल में कहीं भटक रहा होगा। मैं बिना देर किए पैदल ही वहाँ पहुँच गया। बाहर खड़े अधिकारियों से कहा — ‘मेरा भाई अंदर गया है… और अब तक लौटा नहीं।’ शायद उन्होंने मेरी आवाज़ में छुपी बेचैनी को महसूस कर लिया।”

जब पापा गार्ड्स की मदद से महल के चंगुल से निकलकर किले से बाहर आते हुए स्टेशन की सराय पहुँचे, तब उन्हें — यानी चाचा को — ज़्यादा कुछ पता नहीं चल पाया था।

कई सालों बाद, जब यह किस्सा उनके कानों तक पहुँचा — तभी जाकर इस बात का असली खुलासा हो पाया।

उस पल पापा समझ पाए कि उस डरावनी रात में जो रोशनी आई थी — वो सिर्फ टॉर्च की नहीं, एक भाई के भरोसे की थी।

माधवेंद्र भवन की वो रात आज भी हमारे परिवार में एक किस्सा बनकर सुनाई जाती है — एक भूलभुलैया, एक रात, एक निशान, और एक ‘चलो...’ जो पापा की आवाज़ में आज भी गूंजता है।

समाप्त

ये भी एक अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि अंधेरे से डर का ये उनका पहला सामना नहीं था। उनके साथ ऐसा एक और किस्सा हो चुका है—घटना बिल्कुल अलग थी, जगह भी, लेकिन उस घटना ने भी डर का ऐसा मंजर खड़ा कर दिया था जिसे भूल पाना आसान नहीं।