मुन्ना भाई साहब: हमारी यादों की चलती-फिरती दुकान
Nostalgiaयह कहानी उस शख्स की है, जो हमारे बचपन की हर शाम में गहराई से रचा-बसा था — मुन्ना भाई साहब, जिनके ख़ास खाने के सामान हमारे दिलों में एक ख़ास जगह बना चुके थे। आज भी जब हम उन सुनहरी शामों को याद करते हैं, तो सबसे पहले वही स्वाद और उनके साथ बिताए वो बेहतरीन पल दिलों में ताज़ा हो जाते हैं।
मुन्ना भाई साहब एक गोल-मटोल, हँसमुख और सादादिल इंसान थे। उनके पास एक साइकिल हुआ करती थी, जिस पर लकड़ी की एक बड़ी पेटी बंधी रहती थी। लेकिन उस साइकिल पर सिर्फ पेटी नहीं होती थी—पूरी साइकिल छोटे-बड़े थैलों से लदी रहती थी, जिनमें पॉपकॉर्न, कुर्रइयाँ वगैरह भरे होते थे। और हाँ, उस साइकिल पर घंटी नहीं, बल्कि एक ज़ोरदार भोंपू होता था, जिसकी आवाज़ सुनते ही गली के सारे बच्चे खुशी-खुशी दौड़ पड़ते थे।
वह चीज़ें तो वही बेचते थे, जो अक्सर आसपास की दुकानों में मिलती थीं, लेकिन उनका अंदाज़ अनोखा था। वे कंजूस नहीं थे, खुले दिल के मालिक थे। उनके पास कई ऐसी चीज़ें भी होती थीं, जो आसपास की दुकानों में नहीं मिलती थीं। अगर आपने उनसे खीरे माँगे, तो पहले आपको उनमें से सबसे अच्छा खीरा खुद चुनने देते। फिर वहीं खड़े-खड़े उसे छीलते—छिलके उनकी बड़ी सी तोंद पर गिरते हुए ज़मीन पर गिर जाते। फिर वह खीरे को लंबी स्लाइसों में या गोल-गोल काटते, उस पर नींबू निचोड़ते और एक ख़ास सीक्रेट मसाला छिड़कते—सिर्फ एक रुपये में ऐसी ताजगी, जिसकी खुशबू से ही मुँह में पानी आ जाए!
मसाले वाली लाई का तो कहना ही क्या! लाई को लिफाफे में भरते, उसमें नमकीन मिक्सचर, प्याज़, नींबू और वही जादुई मसाला डालते। और जब सब मिलकर लाई में घुलते, तो उसका स्वाद ज़ुबान पर ऐसा चढ़ता कि आज भी याद आते ही स्वाद जाग उठता है। कभी-कभी उनके साइकिल के पास ऐसे-ऐसे एक्सपेरिमेंट होते थे, जिन्हें देखकर हैरानी हो जाती थी। जैसे—ऑरेंज आइसक्रीम पर मसाला छिड़क देना! पहले तो हँसी आती थी, लेकिन फिर टेस्ट कर के समझ आता था—अरे! इसमें तो मज़ा ही आ गया!
पॉपकॉर्न, कुर्रइयाँ, मूँगफली की चिक्की, लाई की चिक्की, नमकीन मिक्सचर की तमाम वैरायटी, बेर, मकोई, जामुन, जामफल—क्या नहीं होता था उनके पास! जब वह गली में पुकार लगाते—"बेर छोटे..." तो कभी-कभी इधर-उधर से नटखट बच्चों की आवाज़ आती—"मुन्ना मोटे..."। हर शाम वह हमारे मोहल्ले में खंभे से साइकिल टिकाकर खड़े हो जाते। उनकी आवाज़ और मुस्कान पूरे मोहल्ले की रौनक बन चुकी थीं।
एक बार जब एक 10-11 साल का लड़का उनसे उधार में कुछ ले गया था, तो अगली बार वह बच्चा चूरन के साथ आने वाला 'मास्क' पहनकर आया। मुन्ना भाई साहब ने उसका मास्क उतारा और कहा, 'क्यों बे! पिछले पैसे क्यों नहीं दिए अभी तक?' क्योंकि उसके सुनहरे बालों से मुन्ना भाई साहब ने उसे पहचान लिया था। हम सब ठहाके मारकर हँसे थे। यही था मुन्ना भाई साहब के सामान का स्वाद, कि लोग मास्क लगाकर भी आ जाते थे। 😄
मुझे बचपन में किताबें पढ़ने का बेहद शौक था—चाहे वो कहानियों की किताबें हों या कॉमिक्स। मैं घर के सामने की पटरियाँ पार कर कभी ‘शुभम’ तो कभी ‘सरस्वती बुक स्टोर’ से कॉमिक्स किराए पर लाया करता था। चाचा चौधरी, पिंकी और बिल्लू मेरी दुनिया हुआ करते थे। लेकिन असली खजाना तो मुन्ना भाई साहब के पास था।
वह कबाड़ का भी काम करते थे और उन्हें पता था कि किताबों से मेरा रिश्ता कितना खास है। जब भी रद्दी छाँटते, कहानियों की किताबें मेरे लिए अलग रख देते, जिन्हें मैं कभी पैसों से तो कभी पुराने अख़बारों के बदले उनसे ले लेता था।
एक बार मैं बिजली घर से निकल रहा था, तभी मुझे ख्याल आया कि मुझे बताया गया था कि मुन्ना भाई साहब का घर इस किराने की दुकान के बगल की गली में ही पड़ता है। मैंने सोचा, यहीं से निकलता चलूँ। मैंने देखा, मुन्ना भाई साहब शांति से भजन सुनते हुए अपना काम कर रहे थे। कमरे में अगरबत्ती की महक फैली हुई थी, और उनके चेहरे पर एक अलग ही शांति थी। उस शाम, जब हर बार की तरह वह हमारे घर के पास आए, तो मैंने सब दोस्तों से तेज़ आवाज़ में कहा—"आज मैं मुन्ना भाई साहब के घर के सामने से निकला था... मुन्ना भाई साहब शांति से अगरबत्ती की खुशबू में अपना काम कर रहे थे, और भजन चल रहे थे—'जय हनुमान ज्ञान गुन सागर...'" मेरी बात सुनकर मुन्ना भाई साहब हँसने लगे और देर तक मुस्कराते रहे।
मुझे याद है वह बात। बचपन में मुझे हमेशा अपने घर के सामने सफाई रखने का बहुत शौक था। मैं पानी का छिड़काव करता था और हर कोने को साफ़-सुथरा रखने की कोशिश करता था। यह मेरी आदत बन गई थी, और मुन्ना भाई साहब भी मेरी इस बात से प्रभावित थे। एक दिन जब मैं किसी त्योहार के खास मौके पर घर के सामने की सफाई निपटा चुका था, तो मुन्ना भाई साहब उस सफाई वाले स्थान को लगातार गहराई से देखते रहे और काफी देर बाद गंभीर स्वर में बोले—'शब्बीर ने धरती को ऐसा बना दिया, जैसे स्वर्ग!' फिर उन्होंने खुद ही अपने ग्राहकों द्वारा फैलायी गई गंदगी उठाई और नाले के उस पार फेंक दी। यह उनके दिल की अच्छाई और उनकी सरलता को दर्शाता था।
कभी हमारे घर के सामने एक छोटी बगिया भी हुआ करती थी, जहाँ दादा ने सब्जियाँ उगाई थीं। मुन्ना भाई साहब उस बगिया में लगी भिंडियों को ऐसे खाते जैसे बकरी खा रही हो! वह अक्सर खीरे के बदले मुझसे भिंडियाँ माँगते थे। मैं हैरान होता था कि कोई कच्ची भिंडियाँ कैसे खा सकता है! दरअसल, वह भिंडियाँ बेहद खास थीं—हल्के हरे रंग की और छूने में मखमली।
वह मेरे हाथ से हुई बोनी को शुभ मानते थे। कहते थे, "शब्बीर कुछ खरीदे तो ग्राहक झुंड में आते हैं।" कई बार जब मेरे पास पैसे नहीं होते थे, तो वह ज़बरदस्ती मेरी पसंदीदा चीज़ तैयार करके पकड़ा देते थे। फिर मुझे मम्मी से पैसे लेकर उन्हें देने पड़ते। उस वक्त पॉकेट मनी कम होती थी और मोहल्ले में लुभावनी चीज़ें लेकर आने वालों की संख्या ज़्यादा!
गर्मियों में, वह अक्सर मुझसे फ्रिज का ठंडा पानी माँगते थे, और पीते इस तरह थे कि बोतल का लगभग 70% पानी उनके पेट में चला जाता था और 30% उनकी तोंद पर गिरता था।
आज वह बाज़ार में कभी-कभी दिख जाते हैं... लेकिन अब ना वह साइकिल, ना वह भोंपू, और ना ही वह मोहल्ले की मासूमियत। मुन्ना भाई साहब की असली पहचान महंगाई और डिजिटल दुनिया ने हमसे छीन ली है। मगर मेरी यादों में वह आज भी ज़िंदा हैं—वही साइकिल, वही भोंपू, वही मुस्कान और वही सीक्रेट मसाले की खुशबू के साथ।