"डरना मना है" — एक भूली हुई सिनेमैटिक जादूगरी

"डरना मना है" — एक भूली हुई सिनेमैटिक जादूगरी

आजकल की हिट फिल्मों में चाहे जितनी भी चमक-दमक हो...
मुझे उनमें वो रोमांच, वो सच्चा सिनेमैटिक अनुभव नहीं मिलता – ख़ासतौर पर कैमरा ऐंगल्स की बात करें तो।

मैंने पहले भी अपने ब्लॉग पर इसकी कई वजहें साझा की हैं, लेकिन एक बात जो अब तक अनकही थी, वो आज एक यादगार फिल्म के ज़रिए कहना चाहता हूँ — 2003 में रिलीज़ हुई ‘डरना मना है’

इस फिल्म की सबसे बड़ी ताक़त थी इसकी सिनेमैटोग्राफी

सात दोस्त — श्रुति, सुमन, रोमी, मेहनाज़, नेहा, अमर और विकास — एक गाड़ी में सवार होकर जंगल से गुज़र रहे होते हैं। तभी टायर पंचर हो जाता है, और फिर पता चलता है — जैक तो लाना ही भूल गए। एक हल्की सी रौशनी दूर से टिमटिमाती दिखाई देती है। सबका ध्यान उसी तरफ खिंचता है। जैसे ही वो उस दिशा में बढ़ते हैं, सामने आता है जंगल के बीच एक वीरान खंडहर। टूटी-फूटी दीवारें, सूखे पत्ते और घास की सरसराहट…
और उस सबके बीच… वो अकेली जलती हुई लालटेन। वही खंडहर बनता है उनका आरामगाह और वहीं से शुरू होती है एक-एक कर के डर की दास्तानें।

मुझे आज भी याद है — फिल्म की शुरुआत का ऊँचाई से लिया गया वो शॉट:
झाड़ियाँ, सड़क, चाँदनी रात, और दूर से आती हुई एक गाड़ी।
हल्की हँसी, दोस्तों की मस्ती, और जंगल की नेचुरल लाइटिंग — हर फ्रेम रोमांच से भरा।

सोचिए, उस एक शॉट के लिए डायरेक्टर और टीम ने कितनी मेहनत की होगी।

अब के डायरेक्टर...?
क्या वे इतने डीटेल्स पर ध्यान देते हैं?
साफ़ कहूँ — नहीं।
क्योंकि अब फिल्में नहीं बनतीं, बस ‘कंटेंट’ बनता है।

एक सीन था — लालटेन का क्लोज़अप, फिर ग्रुप शॉट, सब दोस्त खंडहर में घूमते हुए...

‘पर ये लालटेन किसका होगा यार?’

‘अरे छोड़ो ना, जिसका भी होगा, आ ही जाएगा...’

‘क्यों? आने के बाद क्या वो हम सबको गरमागरम चाय बनाकर पिलाएगा...?’ 😄

और बैकग्राउंड म्यूज़िक — माहौल जमा देता था।
ये सिर्फ एक फिल्म नहीं थी, एक एहसास था।

हर कहानी या उससे जुड़ा कोई सीन याद रह जाता है।

जैसे:

पहली कहानी: अंजलि करण पर सिर रखकर आँखें बंद करती है, और मिरर में करण का अक्स नहीं होता।

दलदल से एक हाथ निकलता है, जिसमें करण की घड़ी बंधी होती है। अंजलि उसे बचाने की कोशिश करती है, लेकिन करण डूब जाता है। तभी करण पीछे से उसके पास आता है — वो सीन वाकई रोमांचित कर देने वाला था।

दूसरी कहानी: होटल मालिक का साइको अंदाज़ में अनिल की सिगरेट की लत छुड़ाने में भिड़ जाना।

कहानी की शुरुआत — अनिल की कार होटल के सामने रुकती है। टायर का क्लोज़अप, परफेक्ट साउंड इफेक्ट्स — शुरुआत से ही थ्रिल भर देता है।

छह महीने बाद अनिल एकदम साफ-सुथरा, सज्जन किस्म का लगता है। फिर वो सीन आता है — जब एक ग्राहक उसके चेहरे पर धुआँ फूंकता है, और अनिल उसे गोली मार देता है। मालिक हँसता है, और दोनों 'टॉम एंड जेरी' शो खत्म होने के बाद ऐंटी-स्मोकिंग ऐड देखते हैं — वो सीन भी कमाल का था।

तीसरी कहानी: एक लड़की जो वरुण की तरह "ॐ" लिखती है। दयाशंकर का इस बात को लेकर डरना।

दयाशंकर पांडे जी का क्लासरूम सीन याद है? जहाँ रोज़ बच्चों को दीवार की तरफ मुँह करके खड़ा कर दिया जाता है? वो सीन मेरे चाचा का फ़ेवरेट था — शायद इसलिए, क्योंकि उसमें उन्हें अपना अक्स दिखाई देता था। और फिर वही दयाशंकर जी का रात में दीवार फांदकर घर में घुस जाना… फिर उनका फूट-फूटकर रोना — वाकई, हँसी रोकना मुश्किल हो जाता था!

चौथी कहानी: गायत्री सेब खरीदकर लौट रही होती है, तभी सेब और भी सस्ते हो जाते हैं, इस बात पर सेब वाले का गायत्री को जवाब।

"इस कहानी को देखते हुए सेव खाने का मन होने लगता है… शायद इसलिए कि फिल्म में दिखाए गए सेव बड़े ही ताज़ा लगते हैं… या फिर कहें — बड़े ही खस्ता!" 😄

पाँचवीं कहानी: कब्रिस्तान पर खड़ा शख्स, जिसे अमर लिफ्ट देता है। उन दोनों के बीच की बातचीत।

Zee Cinema पर पहले ये फिल्म आए दिन आती रहती थी, लेकिन वो सीन जिसमें अमर चश्मा उतारता है और उसकी आँखें नहीं होतीं — उसे टीवी वर्जन में हटा दिया गया था।

छठी कहानी: पुरब, "स्टॉप" बोलकर लोगों को रोक सकने की शक्ति हासिल कर लेता है, और फिर आत्मविश्वास आसमान पर होता है।

और जब पुरब खुद को फ्रीज़ कर देता है, और उसे अस्पताल ले जाया जाता है — वो सीन भी बड़ा फनी था।

फिल्म का अंत: सातों दोस्त खुद को अस्पताल कर्मियों द्वारा एम्बुलेंस में ले जाते हुए देखते हैं — वह सीन फिल्म का सबसे डरावना होता है...

अब जब मैंने इंटरनेट पर इस फिल्म के रिव्यू पढ़े —
ज़्यादातर निगेटिव थे।

तब समझ में आया — कई समीक्षक फिल्म की गहराई नहीं, सिर्फ उसकी ‘रेटिंग’ देखते हैं।
अगर उन्हें पता होता कि ये एक कल्ट फिल्म है — वो फिल्म जो वक्त के साथ अपने दर्शकों के दिल में जगह बनाती है — तो शायद वो भी इसे समझने की कोशिश करते।

शायद इसलिए ये फिल्म पहले नहीं चली —

क्योंकि लोगों को उससे वही डर, वही म्यूज़िक चाहिए था जो इससे पहले की हॉरर फिल्मों में था।

लेकिन ये बहुत ही एक्सपेरिमेंटल और बहुत ही अलग तरह की फिल्म थी।
न इसमें सदाबहार संगीत था, न पारंपरिक डर।

इसकी सोच और प्रस्तुति अलग थी — और शायद शुरुआत में लोग इसे समझ ही नहीं पाए।

और अगर मैंने इसे पहले कभी नहीं देखा होता...
तो शायद मैं भी सिर्फ रेटिंग देखकर इसे स्किप कर देता।

लेकिन जब ‘डरना मना है’ रिलीज़ हुई थी...

मेरे चाचा का लड़का मेरे पास ऐसे आया जैसे कोई जासूसी मिशन से लौटा हो!
चेहरे पर चमक, आवाज़ में जोश —

“यार… अब तक की सबसे ज़बरदस्त फिल्म देखी है!”

और फिर उसने पूरी फिल्म ऐसे सुनाई —

जैसे उसमें एक्टिंग भी वही कर रहा हो, डायलॉग भी वही बोल रहा हो, और बैकग्राउंड म्यूज़िक भी वही गुनगुना रहा हो।

हमने इस फिल्म की कहानियाँ दोस्तों के साथ बार-बार डिस्कस कीं।

और फिर वो सेब वाली कहानी...

गायत्री सेब लेकर लौट रही होती है। अचानक फिर वही आवाज़ —

“दस रुपये किलो… दस रुपये किलो… दस रुपये किलो…”

गायत्री पलटकर हैरानी से पूछती है:
“अभी तो आपने बीस रुपये किलो में दिए थे?”

और फिर — राजपाल यादव का वो ऐतिहासिक जवाब, जो हम आज भी मस्ती में दोहराते हैं:
“अपनी मर्ज़ी का मालिक हूँ, समझी?”

अब सोचिए भैया जी, जो एहसास आपने इस लेख को पढ़कर पाया,
वह क्या किसी रिव्यू से मिल सकता था?

तो अगली बार जब कोई कहे — "पहले रिव्यू देख लो…"
तब डायलॉग याद रखना:
"अपनी मर्ज़ी का मालिक हूँ, समझी?"