दिखावा या हक़ीकत? एक चेहरे के पीछे छुपा सच

दिखावा या हक़ीकत? एक चेहरे के पीछे छुपा सच

कुछ लोग वैसे नहीं होते, जैसे वे दिखते हैं। 

उनका जीवन अपने मूल्यों पर नहीं, बल्कि दूसरों की नज़रों में अच्छा दिखने की कोशिश पर टिका होता है।

ऐसे लोग बहुत चालाक होते हैं।
ये लोगों को अपने पैसे और दिखावे की ताक़त से बाँधकर रखते हैं —
ख़ासकर उन लोगों को, जो न ज़्यादा अमीर होते हैं, न ग़रीब,
क्योंकि उन्हें प्रभावित करना सबसे आसान होता है।

असल में, ये इतने बेईमान होते हैं कि दूसरों का हक़ तक खा जाते हैं।

कभी-कभी तो लगता है जैसे ये लोग मिश्री के निर्माता हों —
बातों में इतनी मिठास घोलते हैं,
लेकिन इरादे इतने खट्टे होते हैं कि नींबू भी जल जाए!

ये लोग दूसरों की ज़िंदगी में ऐसे घुसते हैं जैसे वाईफाई बिना पासवर्ड के —
और फिर धीरे-धीरे उनकी बैंडविड्थ तक चूस लेते हैं।

ये मास्टरमाइंड टाइप होते हैं —
न ज़्यादा अमीरों में घुलते हैं, न ग़रीबों से उलझते हैं।
इन्हें बस ऐसे लोग चाहिए, जो इनकी तारीफ़ में तालियाँ बजाएँ,
और ज़रूरत पड़ने पर इनसे नीचे खड़े रहें।

जब इनके चाहने वालों पर बुरा वक़्त आता है,
तो ये ऐसे ग़ायब हो जाते हैं जैसे ख़ुद किसी गहरी तपस्या में चले गए हों।
असल में, इन्हें डर होता है कि कहीं इनका सजावटी सच गिर न पड़े।

और हाँ, दूसरों की मदद?
ज़रूर करेंगे… लेकिन तब, जब सामने वाला ऊँची पहुँच वाला हो —
जिनसे जुड़कर इनका स्टेटस भी 'अपग्रेड' हो जाए।

समाज की नज़रों में इज़्ज़त और रुतबा बना रहे —
इसके लिए ये अपने पैसों से धार्मिक स्थल तक बनवाने को तैयार हो जाते हैं,
बशर्ते वो स्थल लोगों के दान-पुण्य से चलता रहे, और नाम इनका बना रहे।

लेकिन जब बात अपने ही किसी ज़रूरतमंद की मदद की आती है,
तो इनको नानी याद आ जाती है।
अगर किसी ग़रीब की मदद करते भी हैं,
तो वहाँ भी कोई न कोई स्वार्थ ज़रूर छुपा होता है।

लेकिन इनके चाहने वाले इतने मासूम होते हैं कि
इनकी चालें समझ ही नहीं पाते।

ईश्वर की कृपा इन पर बनी रहे,
इसलिए ये धार्मिक कार्यों से भी जुड़े रहते हैं —
लेकिन वहाँ भी इन्हें दान-पुण्य से ज़्यादा,
सिर्फ ईश्वर की भक्ति में ही दिलचस्पी होती है।
कारण वही — हींग लगे न फिटकरी, और रंग भी चोखा आए।

इन्हें लगता है जैसे भगवान भी इन्हें उतना ही चाहता है,
जितना ये ख़ुद को चाहते हैं।

तो अगली बार कोई बोले — “यार, वो बंदा ना, बहुत अच्छा है…”

तो ज़रा ठहरिए, सोचिए…

शायद वो अच्छाई कोई रिएलिटी शो की स्क्रिप्ट हो — और आप बस दर्शक हों।

क्योंकि आजकल असलियत से ज़्यादा ऐक्टिंग चलती है —
और जो नक़ाब लगाकर घूमते हैं,
वही सबसे ज़्यादा ‘रियल’ कहलाते हैं।

तो अगली बार कोई चमकता हुआ इंसान दिखे,

तो हँसिए… और हल्के से फुसफुसाइए —

बुलबुले फूटते देर नहीं लगती, भैया जी!