तूफ़ान, खंडहर और वो भयावह रात!
Interestingयह कहानी उस एक शाम की है, जो शायद एक आम दिन होता... अगर कुदरत ने अपनी चाल न बदली होती।
मेरे पापा एक अनुभवी मैकेनिक हैं — वर्षों से मशीनों से बातें करते आ रहे हैं। उनकी विशेषता है अपनी प्रतिभाशाली वेल्डिंग तकनीक से ध्वस्त चीज़ों को भी नया जीवन देना।
बात बहुत पुरानी है — उस दिन उन्हें एक दूरदराज़ गाँव जाना पड़ा। वहाँ एक सरदार जी रहते थे, जिन्होंने अपने खेतों में कुछ मशीनों की मरम्मत और निर्माण कार्य के लिए उन्हें बुलाया था।
पापा ने एक छोटी वैन में अपना सारा सामान रखा — गैस सिलेंडर, वेल्डिंग के सभी उपकरण, औज़ारों की पेटियाँ, और चल पड़े।
गाँव तक पहुँचना आसान नहीं था। धूल भरी पगडंडी, रास्ते में कुछ गाय-बकरियाँ और इक्का-दुक्का झोंपड़ियाँ। लेकिन पापा के चेहरे पर मुस्कान थी — जैसे हर चुनौती को वो खुले दिल से स्वीकार करते हों।
गाँव के किनारे पहुँचते ही सरदार जी मिले — एक मीठी मुस्कान के साथ। दोनों बातचीत में मशगूल हो गए। तभी पापा की नज़र रास्ते के पार पड़ी — एक टूटा-फूटा कमरा, झूलती छत, लहराती झाड़ियाँ, दीवारों पर सीलन और वीरानी का आलम। वह जगह किसी डरावनी फिल्म के दृश्य जैसी लग रही थी।
पापा मुस्कराकर बोले, "सरदार जी, वो कमरा तो जैसे भूतों की कचहरी लगता है!"
सरदार जी हँस पड़े, "हाहाहा! कौन जाने, सुना है वहाँ कोई आत्मा रहती है!"
पापा ने तो हँस दिया, लेकिन सरदार जी की बात से मन में एक हलचल जरूर उठी।
सरदार जी बोले, "आप यहीं ठहरिए, मैं अपनी भैंस बाँधकर आता हूँ, बस दस-पंद्रह मिनट लगेंगे।"
वैन से सारा सामान उतारकर एक ओर रख दिया गया था। अब सरदार जी को अपने घर से बैलगाड़ी लानी थी, ताकि वह सारा सामान खेत तक पहुँचा सकें।
पापा वहीं खड़े रहे। आसमान गहराने लगा था। पंछी लौटने लगे थे। अचानक हवाएँ तेज़ चलने लगीं — जैसे कोई आहट हो।
फिर… आसमान गरजा। तेज़ बिजली चमकी और हल्की बूंदें ज़मीन पर गिरने लगीं।
पापा ने इधर-उधर देखा, पर सरदार जी कहीं दिखाई नहीं दिए।
बारिश तेज़ होने लगी तो पापा को वही पुराना खंडहर नज़र आया, जिस पर उन्होंने चुटकी ली थी। आज वही शरणस्थल बन गया था।
पापा ने बताया — "मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मुझे उस डरावने कमरे में जाना पड़ेगा। सोचने का समय ही नहीं था, इसलिए भीगने से बचने के लिए मैं दौड़ पड़ा — जैसे मानो उस कमरे पर की गई मेरी टिप्पणी का बदला कुदरत मुझसे ले रही हो।"
कमरे के भीतर घुप्प अंधेरा था। सीलन की गंध दीवारों से उठ रही थी। टूटी चीज़ें हवा से टकराकर आवाज़ कर रही थीं।
पापा ने रोशनी करने की कोशिश की — कमरे में पड़े कुछ कूड़े जैसे पुराने फटे काग़ज़, पत्ते और पतली लकड़ियाँ इकट्ठा कीं। माचिस निकाली, लेकिन तेज़ हवा हर बार लौ बुझा देती थी।
आख़िरकार एक छोटी-सी लौ जली — काँपती हुई, जैसे डर को हराने की कोशिश कर रही हो।
पर वह भी ज़्यादा देर साथ न दे सकी।
अब सिर्फ बारिश की आवाज़ थी, दीवारों की सरसराहट, और खामोशी का डरावना संगीत।
पापा सोचने लगे — सरदार जी को तो बस भैंस बाँधनी थी... और फिर बैलगाड़ी लानी थी... अब तक क्यों नहीं आए?
कहीं... वो उनकी बात सच तो नहीं थी?
क्या वाक़ई... कोई आत्मा यहाँ रहती है?
एक सिहरन-सी दौड़ गई पापा की रीढ़ में। बाहर देखना चाहा, लेकिन अंधेरा ऐसा था जैसे रात ने काली चादर ओढ़ ली हो।
पापा ने बताया — "वो कमरा बेहद डरावना था। आँधी चल रही थी, टूटी-फूटी खिड़कियाँ खड़क रही थीं, और मैं उस अंधेरे में खड़ा बस इंतज़ार करता रहा। जैसे कुदरत ने मुझे उसी डर से रुबरू करवाने की ठान ली हो।"
वो चुपचाप बैठे रहे, हर आवाज़ पर चौंकते हुए।
काफी देर बाद बारिश थमी, पर अंधेरा और वीरानी जस की तस थी।
फिर... बैलगाड़ी के पहियों की आवाज़ आई। पापा को कुछ स्पष्ट नहीं दिखा।
फिर... एक परछाईं नज़र आई।
कदमों की आहट... एक जानी-पहचानी आवाज़ — "ओ भाई!"
सरदार जी थे — पूरी तरह भीगे हुए, हाँफते हुए।
"कहाँ रह गए थे आप?" पापा की आवाज़ गुस्से से नहीं, डर से काँप रही थी।
सरदार जी हँसते हुए बोले, "ओ मत पूछ यार... भैंस रस्सी छुड़ाकर भाग गई थी। उसे पकड़ने में पूरा गाँव घूम लिया। हाथ ही नहीं आ रही थी!"
पापा कुछ नहीं बोले।
आख़िरकार दोनों ने सामान बैलगाड़ी में चढ़ाया और खेत की बजाय सरदार जी के घर चले गए — आज रात पापा को वहीं रुकना था।
रास्ते में सरदार जी ने पूरी कहानी सुनाई। तब पापा को समझ आया कि वो रात सरदार जी के लिए भी आसान नहीं रही।
पापा ने बताया — "सरदार जी और उनके परिवार ने मेरी जबरदस्त खातिरदारी की — देसी घी के मेवे के लड्डू, घी से तरबतर टिक्कड़, उड़द की दाल, हर व्यंजन प्यार से बना था। थकावट के बाद वो खाना जैसे आत्मा को तृप्त कर गया।'"
अगले दिन पापा ने मशीनों की मरम्मत की, कुछ निर्माण कार्य भी किए। शाम तक काम चलता रहा और सरदार जी ने खाने-पीने का पूरा ध्यान रखा।
जैसा वैन वाले को बताया गया था, वह समय पर पहुँचा — जहाँ पिछली बार सामान उतारा गया था।
घर लौटते वक्त, जब वही खंडहर दोबारा दिखा — पापा ने बताया:
"वो घर अब भी उतना ही डरावना, वीरान और उदास लगा। लेकिन तब एक पल को अचानक मुझे समझ आया — मजबूरी इंसान से वो भी करवा देती है, जो वो कभी करना नहीं चाहता। उस रात कुदरत ने मुझे कोई विकल्प नहीं दिया — बस एक अनुभव दे दिया।"
"वो कमरा, दिन के उजाले में भी डरावना था। लेकिन रात ने उसे एक याद में बदल दिया। डर, तूफ़ान और उस रात की छाया... और उसके बाद मिला एक सुखद एहसास।"
"अगर वो रात इतनी डरावनी न होती, तो शायद सरदार जी के घर का वो अपनापन और गर्मजोशी उतनी गहराई से महसूस न होती।"
उस रात के बाद, जब भी बारिश होती है, जब हवा दरवाज़े से टकराकर आवाज़ करती है — पापा की आँखों में वही दृश्य तैर जाता है।
वो खंडहर... वो डर... और वो तूफ़ानी रात का साया...
और फिर... एक धीमा अहसास — "यह भी बीत जाएगा..."
समाप्त
ये भी एक अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि अंधेरे से डर का ये उनका पहला सामना नहीं था। उनके साथ ऐसा एक और किस्सा हो चुका है—घटना बिल्कुल अलग थी, जगह भी, लेकिन उस घटना ने भी डर का ऐसा मंजर खड़ा कर दिया था जिसे भूल पाना आसान नहीं।